कविता

दौड़ता बचपन

आगे आने वाला शहर,

कितना ही पसंदीदा क्यू न हो,
पीछे छूटने वाला घर,
बेचैन कर ही देता है,
अनगिनत यादें बातें समेटे हुए,
खड़ा होता है घर कोना-कोना,
नए शहर की सुबह,
बेशक दिलचस्प और,
रहस्यमयी होती हैं।
पर पुराने घर की शाम,
याद आते ही,
नज़रे ख़ुद ब ख़ुद भीग जाती हैं,
नए शहर की गलियां,
कितनी ही गुलज़ार क्यू न हो,
पुराने घर की शामें,
बेचैन कर ही देती है।
छूट जाता है घर मे,
दौड़ता बचपन,
मिल जाता है नए शहरों में,
सालता अकेला मन,
हर लम्हे को शब्दों में,
कैसे समेटा जाए,
बस पुराने घर की यादों को,
चलो महसूस किया जाये।
— डिम्पल राकेश तिवारी

डिम्पल राकेश तिवारी

वरिष्ठ गीतकार कवयित्री अवध यूनिवर्सिटी चौराहा,अयोध्या-उत्तर प्रदेश