लघुकथा

वक़्त



फोन बजता है ‘टि्रन-टि्रन…’
‘अरे आ रही हूं’..कहते हुए मीना फोन उठाती है।
‘हैलो! कौन?’
‘नमस्ते दीदी, मैं किरन।’
‘हां! कैसी है, बच्चे ठीक हैं?’
‘दीदी कुछ ठीक नहीं है? खाने के भी लाले पड़ गए हैं। इस महीने की तनख्वाह मिल जाती तो…’
बीच में बात काटते हुए मीना ‘इस महीने तो तुम बिल्कुल आई नहीं फिर तन्ख्वाह कैसी?’
‘दीदी कुछ पैसे मिल जाते तो अपुन के घर भी चूल्हा जल जाता। जब लॉकडाउन खुल जाएगा तब मुझसे ज्यादा काम ले लेना।’ कहते-कहते किरन की आवाज़ में भारीपन आ जाता है।
थोड़ा ठहरकर मीना ‘चल ठीक है कल ले जाना।’
‘दीदी आप पे टी एम कर देते तो अच्छा रहता, आपकी सोसाइटी में आने न देंगे मुझे!’
‘ठीक है! न० भेज।’
‘दीदी आप दिन-दूनी रात-चौगनी तरक्की करें, भगवान आपका घर हमेशा भरे।’
‘चल पगली! अब चने के झाड़ पर बैठाएगी क्या मुझे?’ कहकर फ़ोन रख देती है।
ऊपर भगवान की ओर मुंह करके कहती है कि हाय! यह कैसा समय आया जो बिन काम के पैसे देने पड़ रहे हैं? खुद-बखुद गुनगुनाती हुई रसोई की तरफ बढ़ जाती है…

“वक्त रहता नहीं कहीं टिक कर ,
आदत इस की भी आदमी सी है,
तुम तो खुद एक आदमी हो,
फिर वक्त को क्यों भला-बुरा कहते हो?”

मौलिक रचना
नूतन गर्ग (दिल्ली)

*नूतन गर्ग

दिल्ली निवासी एक मध्यम वर्गीय परिवार से। शिक्षा एम ०ए ,बी०एड०: प्रथम श्रेणी में, लेखन का शौक