कविता

जलेबी

मेरी शक्ल सूरत ही
मत देखिए,
मेरे अंदर भी झाँकिए।
माना कि उलझा उलझा
है तन मेरा,
पर इसकी चिंता मैं क्यों करुँ?
मैं अपना स्वभाव नहीं छोड़ती,
अपनी व्यथा का रोना नहीं रोती
शांत भाव से मिठास बाँटती हूँ,
खौलते तेल में जाकर भी
अपना स्वभाव नहीं बदलती हूँ।
सीख देने की कोशिश
लगातार करती हूँ,
बार बार जलती हूँ
परंतु अपना मीठापन
कब फेंकती हूँ?
कम से कम मुझसे
कुछ तो सीखिये,
कष्ट पीड़ा सहकर भी
बस !मिठास ही बाँटिए।

*सुधीर श्रीवास्तव

शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल, बड़गाँव, गोण्डा, उ.प्र.,271002 व्हाट्सएप मो.-8115285921