सामाजिक

परिवार पर निर्भर करता है बुढ़ापे का मूल्य

बुढ़ापा किसी वर्ग का भी हो बुढ़ापा तो बुढ़ापा होता है। केवल सुविधाओं का फर्क होता है। भौतिक तौर पर फर्क है लेकिन शरीरिक तौर की मजबूरियां, कठिनाइयों, कमियों सब बराबर होती हैं। बच्चे अमीर के हों या गरीब के बुढ़ापा सब रौंदते हैं। आजकल के बच्चे जो बहुत ज्यादा सुविधावादी हैं, वहीं माता-पिता का बुढ़ापे के समय पर साथ नहीं देते। हमारे देश में बुढ़ापा नाममात्र लोगों के लिए ही सुविधाजनक है जबकि निर्धन लोगों का बुढ़ापा अत्यंत निराशाजनक होता है। समय पर दवाई न मिलना, समय पर भोजन न मिलना, सही खुराक न मिलना, सही सोने की जगह न मिलना आदि के कारण बुढ़ापा कई बीमारियों का शिकार हो जाता है तथा आयु से पहले ही जवाब दे जाता है।
बुढ़ापे में सही सुविधाएं न मिलने से निर्धन बुढ़ापा नहीं झेल सकता जिसकी वजह से उकनी मृत्यु जल्दी हो जाती है। लाखों निर्धन बुढ़ापे का इलाज न होने की वजह से शीघ्र मर जाते हैं। बच्चे उनका खर्च बर्दाशत नहीं कर सकते। मध्य वर्ग का बुढ़ापा 75 प्रतिशत के करीब ट्टण में दबा हुआ होता है। मकान के लिए कर्ज, विवाह-शादी के लिए कर्ज, बच्चों की पढ़ाई के लिए कर्ज, विदेश भेजने के लिए कर्ज आदि कई कर्ज मध्ववर्ग के लोगों को देखा-देखी लेने पड़ते हैं।
समय की तेज रफ्रतार से बदलता बाजारीकरण ;भू-मण्डलीकरणद्ध आदि बहुत कुछ बुढ़ापे के लिए घातक सिद्ध हो रहा है। पश्चिम के कल्चर को ज्यादा अपनाया जा रहा है। कच्ची उम्र की कच्ची सोच गुमराह हो रही है। बच्चे माता-पिता की परवाह किए बगैर ही इधर-उधर से सब कुछ देख रहे हैं। अभिभावकों का तेज रक्तचाप, हार्ट अटैक, शुगर आदि बीमारियों का कारण 75 प्रतिशत बेकाबू बच्चे ही हैं। यह बेकाबू लापरवाह बच्चे अभिभावकों को ठोकरें मारते ही मारते हैं। अमीर बुढ़ापा सुविधापूर्वक तो होता ही है लेकिन होता तो आखिर बुढ़ापा ही है। बुढ़ापे वाले समस्त दुखांत अमीरों में भी होते हैं। केवल फर्क बस इतना है कि अमीर बुढ़ापे में बीमारियों का ईलाज अच्छे ढंग से करवा सकते हैं। अमीर बुढ़ापे में भी शरीरिक तौर पर बच्चे कम ही साथ देते हैं। जिन बुजुर्गों के पास धन-दौलत है या दोनों दंपति कमाते हैं, वह तो बुढ़ापे में भी बच्चों की परवाह नहीं करते क्योंकि उनके पास सुख-सुविधा के लिए पैंशन आदि होती है।
बुजुर्ग पौत्र-पौत्रियों, बहू-बेटी की मिजाज को, मजबूरी को भी समझें। नौकरी पेशे की मजबूरी, छोटे बच्चों की मजबूरी आदि। कई बुजुर्ग केवल अपनी ही आदतों की ढपली बजाते रहते हैं वे ओर किसी की सुनते ही नहीं। वह अपना मनोरंजन आदि तथा बाहरी सोसायटी से बाज नहीं आते। घर के पैसे की चोरी-चोरी बाहरी अÕयाशी के लिए प्रयोग करने से नहीं कतराते। बाज नहीं आते। कई बाहरी क्रियाओं पर धन बर्बाद करके अपना समय व्यतीत करते हैं, जिसकी वजह से परिवार में तकरार खड़ी हो जाती है और बहू-बेटियों-बेटों में अपनी इज्जत खो लेते हैं। फिर भी देखा जाए तो बुजुर्गों के अतिरिक्त घरों की कोई कदर नहीं होती। जिन घरों में बुजुर्ग नहीं उनसे पूछकर देखो बुजुर्गों की बरगद जैसी ठंडी छाव की क्या कीमत होती है। बुजुर्गों के अतिरिक्त घर अधूरे हैं, सब रिश्ते-नाते अधूरे हैं। बुजुर्गों के साथ समझोता करके घरों की जिंदगी को चलाना ही समझदारी तथा दूरदर्शिता की बात है। बुजुर्गों की आदतें अच्छी हैं या बुरी उन को हर हाल में अपनाना ही पड़ेगा। नहीं तो समाज बच्चों को ही बुरा कहेगा। पका हुआ फल कभी भी कच्चा नहीं बन सकता। ढलता सूर्य कभी भी पीछे नहीं जा सकता। बुजुर्ग तो सुगंधित गुलाब हैं जिनकी पंखुड़ियां शाख पर पक चुकी होती हैं। इनका सही प्रयोग गुलकंद बनाकर ही किया जा सकता है। बुजुर्गों से किसी सीमा तक सहमत हो जाना चाहिए तथा गुलकंद का मजा लेना चाहिए। जिंदगी एक खेल है, कोई जीत रहा है कोई हार रहा है। कई लोग हार कर भी जिंदगी में खूबसूरती पैदा कर लेते हैं। कई लोग जीत कर भी जिंदगी से संतुष्ट नहीं होते।
मेरा एक दोस्त अखबार बेचने का काम करता था। उसका पिता बहुत सख्त स्वभाव का था। ईमानदार और परिश्रमी था लेकिन बोलचाल का थोड़ा टेढ़ा था। जो मुंह में आए बक देता था। आस-पड़ोस कुछ नहीं था देखता लेकिन बंदा बहुत सच्चा था। गरीबी में उसने परिवार सैट किया। दोस्त का पिता सुबह-सुबह ही अखबारों की दुकान पर ही उसको गालियां बकता था। उनकी तकरार में भी मैं मशवरे के ओर से शामिल हो जाता। पिता को दोस्त भी कई कुछ बोल देता। एक दिन मैं अपने दोस्त को समझाने लगा? देख यार, आपके पिता बहुत ईमानदार तथा मेहनती व्यक्ति हैं। तुम आगे मत बोला करो, दोस्त ने कहा- क्या करूं फिर इनका घर पर भी यही हाल है। दुखी कर दिया है हमें, बोलता बहुत है। मैंने दोस्त से कहा- बुजुर्गों की आदतें बच्चों जैसी हो जाती हैं। इनके साथ सहमत होना जरूरी नहीं। देखो दोस्त यह बुजुर्ग लोग इस दुनिया से चले गए तो फिर ढूंढ़े भी नहीं मिलेंगे। लाख आवाजें लगाने से भी नहीं मिलेंगे। तुम इन पर गुस्सा मत किया कर यार। सबको मालूम है आपके पिता आपको गालियां देते हैं। जब यह बुजुर्ग इस दुनिया से दूर चले गए तो अर्थी के साथ लगकर ऊंची-ऊंची रोने का क्या फायदा? पापा जी आप हमें छोड़कर चले गए। तब अर्थी के साथ रोने का क्या फायदा? जीते जी उनकी कोई बात बर्दाशत नहीं कर सकते तो लोग कहेंगे वही पुत्र है जो बाप के आगे बराबर बोलता था। आज वह मर गया तो सुबक कर रो रहा है। झूठा रो रहा है। जीते जी तो उस के बोल-कुबोल स्वीकार नहीं करते रहे, आज रोना काहे को आ गया। दोस्त आवाज लगाने से भी नहीं बोलेंगे बुजुर्ग। कितनी आयु होगी इन बुजुर्गों की ज्यादा से ज्यादा दस वर्ष ओर होगी, क्योंकि उसके पिता की आयु उस समय 70 वर्ष के करीब थी। उस दोस्त ने मेरी बात मान ली तथा अपनी पत्नी को कहा-भागवान सुन, बुजुर्गों की किसी भी बात का गुस्सा मत करना। इनको खिलोने की भांति समझना। इन्होंने ओर कौन सा हजार वर्ष जीना है। जो मर्जी कहं सत बचन कह कर समय निकालते चल। रिश्तेदारों को इनके स्वभाव का पता है। इतनी बात से बुजुर्ग भी खुश तथा बच्चे भी। कुछ माह के बाद दोस्त का पिता हार्ट अटैक के कारण प्रभु को प्यारा हो गया। रिश्तेदारों ने, लोगों ने सबने बहु-पुत्र की तारीफ की। भई यह बाप के आगे नहीं थे बोलते, इनका बाप बड़ा खब्ती व्यक्ति था। अब आज मैं उस दोस्त के पास जाता हूं तो वह अपने बाप को याद करके रोता है। उसको पता चला कारोबार कैसे चलता है। अब उसको पापा नहीं मिलेंगे, लाख आवाजें लगाए। दोस्तो घर में बड़ों के कहे शब्दों का बुरा मत मानो। शब्द रिश्तों से बड़े नहीं होते। तकरार तथा शब्द समय से उगते हैं और मर जाते हैं लेकिन रिश्ते नहीं मरते। रिश्तों पर शब्द हावी न होने दें। रिश्तों के बीच शब्दों को अर्थ न दें।
बुजुर्ग तथा बच्चे जन्नत का एक हिस्सा हैं। जन्नत कहीं ऊपर नहीं, यहीं है आपके परिवार में, समझौते की नींव पर जिंदगी के भव्य भवन बनाओ तो जिंदगी स्वर्ग हैं बुढ़ापा एक मंदिर की दहलीज है। नतमस्तक हो जाइए।
— बलविन्दर ‘बालम’

बलविन्दर ‘बालम’

ओंकार नगर, गुरदासपुर (पंजाब) मो. 98156 25409