कविता

गरीबी

सूख कर कंकाल बना गरीब आदमी
सूखा है नसों से लहू आंखों से नमी
दो वक्त की रोटी के लिए भटकता है
फिर भी सबकी नजरों में खटकता है
जिसका आसमां छत बिछौना जमीं
सूख कर कंकाल बना गरीब आदमी

भूख की अनल जिससे पेट है जला
नीर भी मिला नहीं सूखता है गला
तपता रहा शरीर नित तेज बुखार से
काट रहा वो दिन गरीबी की मार से
स्वयं को जला कर वो दे रहे रोशनी
सूख कर कंकाल बना गरीब आदमी

दो आने कमा पाया है जी तोड़ कर
लाचारी ने रख दी गरदन मरोड़कर
गुजार रहा देखों भूखा जागकर रातें
सब जगह लूटेरे जाये कहाँ भागकर
गरीब का सहारा नहीं वो कैसा धनी
सूख कर कंकाल बना गरीब आदमी

ओढ़े भी क्या तन पर गंदे फटे वसन
भूखे मर जाये तो नसीब नहीं कफ़न
दर्द भरी गरल सी जिंदगी गरीब की
देहजोत के कटी रातें बदनसीब की
कोई और चाट रहा मेहनत का हनी
सूख कर कंकाल बना गरीब आदमी

कारखानों में पा रहा है विषैली हवा
बीमार हुआ तो मिली नहीं उसे दवा
सो रहा यूँ कुचला गया फुथपाथ पर
मदद के नाम जख्म मिला हाथ में पर
रक्त के अश्क है ह्रदय में दर्द व गमी
सूख कर कंकाल बना गरीब आदमी

तम युक्त जनाब बचपन हुआ देखिये
चहुँ ओर उठा ख्वाब का दुआ देखिये
पेट की क्षुधा बुझे बचपन मजबूर है
कलम न पुस्तक हाथ में स्कूल से दूर है में
गरीब की गरीबी में कहीं सांसे थमी है
सूख कर कंकाल बना गरीब आदमी

बेबसी गरीबी के लिए जिम्मेदार कौन
दानियों के साथ साथ ये सरकार मौन
के भाषणों से खत्म है नेताओं गरीबी
फुटपाथ पर बिलखती है बदनसीबी
करो विचार दोस्तों किसकी है कमी
सूख कर कंकाल बना गरीब आदमी

— आरती शर्मा (आरू)

आरती शर्मा (आरू)

मानिकपुर ( उत्तर प्रदेश) शिक्षा - बी एस सी