कविता

गाँव की गलियां

समयचक्र और
आधुनिकता की भेंट
चढ़ गईं हमारे गाँव की गलियां,
लगता ऐसे जैसे कुछ खो सा गया है,
अपनापन गलियों में भी
जैसे नहीं रह गया है।
धूल,मिट्टी और कीचड़ भरी गलियों में
अजीब सी कशिश थी,
कंक्रीट के साथ जैसे
वो कशिश, अपनेपन की खुशबू भी
जैसे दफन हो गई है।
अब तो गाँवों की गलियों में भी
बच्चों का शोर ,हुड़दंग और
आपस का द्वंद्व ,शरारतें
गुल्ली डंडा और कंचे खेलना,
अंजान शख्स के दिखते ही
कुत्तों का भौंकना,
खूंटे से बंधे जानवर का
रस्सी तोड़कर गलियों में
सरपट भागना,
गलियों के मुहाने पर जगह
उन्हें पकड़ने के लिए
लोगों का मुस्तैद हो जाना ।
बड़े बुजुर्गों के डर से
गली में चुपचाप छुप जाना,
चाचा,दादी,बड़ी मां के पीछे
गली गली घूमकर
छुपते छुपाते घर में घुस जाना
जैसे जंग जीतने की खुशी का
अहसास करना
सब इतिहास हो गया,
गलियों का भी तो अब जैसे
केंचुल उतर गया।
गलियां भी अब वो गलियां
नहीं रह गई,
जहाँ घुसते ही जैसे
सुरक्षा और सुकून का ही नहीं
अपनों के बीच पहुंच जाने का
अहसास होता था,
अब सब कुछ बिखर सा गया है
गाँवों की गलियों को जैसे
आधुनिकता का भूत चढ़ गया है,
आज तो गाँव की गलियों में भी
बहुत भेद हो गया है,
इंसानी फितूर अब जैसे
गलियों को भी चढ़ गया है।

*सुधीर श्रीवास्तव

शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल, बड़गाँव, गोण्डा, उ.प्र.,271002 व्हाट्सएप मो.-8115285921