कविता

प्रेम में स्त्री

प्रेम में डूबी स्त्री
खोल देती हैं एक-एक कर
अपने मन में पसरे मौन की परतें को

वह अपने भीतर पड़े
शांत कुंठित सम्वेदनाओं की जमी नदी में
लाना चाहती है हलचल तूफान

और उन उठते लहरों में
खुद को बहाकर पा लेना चाहती है पार

अपने सम्पूर्ण एहसासों का
करना चाहती है जलाभिषेक प्रेम की अमृत बूंदों से

प्रेम में डूबी स्त्री
चाहती है बांध के पायल पैरों में
इतराएं बलखाएँ चारों दिशाएं

बतियाए सूरज की किरणों से
चाँद की मद्धिम रौशनी में नहाकर
तारों की छांव में करे सोलह श्रृंगार

चूमकर अपने हथेलियों पर रची हिनाओं को
हवा में बिखेर दें गुलाबी आशाओं की
मदहोश भरी सुगन्ध

प्रेम में डूबी स्त्री कितना सरल और सहज हो जाती है
कि दूर बज रहे मन्दिर की घण्टी की आवाज पे
सुध-बुध खोकर झूम उठती है
मानो, जैसे उसने देवत्व को अपने भीतर पा लिया हो

प्रेम में डूबी स्त्री
अदभुत अचंभित
प्रकृति का वो लौकिक रूप होती है
जो इस धरती को
हरियाली का नवांकुर सौप देना चाहती है नवसृजन के लिए।

*बबली सिन्हा

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