लघुकथा

विश्वास

 

कचरा बीनने वाले का बेटा विश्वास, जब अपने पिता को काम करते देखता, तो वह भी उनकी सहायता के लिए हाथ आगे बढ़ा देता। पिता की बीमारी ने उसकी डॉ० बनने की इच्छा को और मजबूत कर दिया था।
लेकिन जब वह सुनता कि बिना कोचिंग कुछ नहीं हो सकता। तब कुछ समय के लिए उसका खुद पर से विश्वास डोल जाता। एक क्षण बाद ठहर! फिर आगे बढ़ जाता। उसके विधालय के एक अध्यापक उसका मार्गदर्शन समय-समय पर करते रहते थे। जिससे उसका मनोबल हमेशा बना रहता था।
ऐसा चलते-चलते परीक्षा का समय भी आ गया। परीक्षा देकर जब वह बाहर निकला, तब जो आवाज़ उसके कानों में पड़ी, उससे उसके होश फाख्ता हो गए। बच्चे आपस में बात करते नज़र आए “मुझे एक प्रश्न नहीं आया- मुझे दो- मुझे तीन….”
“मुझे तो पूरे पन्द्रह प्रश्र!” यह सोचकर विश्वास का ग्राफ आरंभ पर पहुंच गया था। निराश हो विश्वास, जाकर पिता का हाथ बंटाने में लग जाता है।
एक दिन अचानक विधालय के अध्यापक को अपने घर के दरवाज़े पर मिठाई के साथ देख वह हस्तप्रध! रह जाता है…
‘गुरु जी आप!’
‘शाबाश! बेटे तुमने परीक्षा पास कर ली।’ मिठाई खिलाते हुए।
आज विश्वास का अपने ऊपर विश्वास सौ प्रतिशत दौड़ लगा रहा था और वह आसमां तले उड़ने को बेकरार था…

जय हिंद जय भारत

मौलिक रचना
नूतन गर्ग (दिल्ली)

*नूतन गर्ग

दिल्ली निवासी एक मध्यम वर्गीय परिवार से। शिक्षा एम ०ए ,बी०एड०: प्रथम श्रेणी में, लेखन का शौक