कथा साहित्य

निर्णय

“देखो, ये कैसी महिला है ? अपने पति और बच्चों को छोड़कर अकेले मजे-से रहती है I” श्रीमती अ की बात पर श्रीमती बी ने उनकी हाँ में हाँ मिलते हुए कहा, “औरत जात में इतना इगो रखना भी ठीक नहीं है I चाहे कितना भी पढ़-लिख लें, हमें घर-परिवार के साथ समझौता करके ही चलना पड़ता है I”

“ठीक कहा, क्या इनके पति जीवित हैं ?”

“अरे ! अच्छा-खासा परिवार है, दो बच्चे हैं I मालूम नहीं, इनको अकेले रहने की क्या सूझी ? बस आ गई समाज-सेवा करने का बहाना लेकर I यह तो एक दिखावा है; ऐसा कहीं होता है ?”

“सीमा से ज्यादा महत्वाकांक्षी होने का यही परिणाम होता है I”

घर से आश्रम आते-जाते श्रीमती प्रसाद के कान इन बातों को सुनने के इतने अभ्यस्त हो चुके थे कि अब उन पर कोई असर नहीं होता था बल्कि जिस दिन ऐसा कुछ नहीं सुनाई देता, तो कुछ खाली-खाली सा लगता पर उस दिन उन्हें अच्छा नहीं लगा क्योंकि उस दिन उनके साथ उनकी नई पड़ोसी सुनीता भी साथ थी I वह पहली बार आश्रम आई थी I उसने कहा, “प्रसादजी, ये महिलाएँ यहाँ ध्यान और योगाभ्यास करने आती हैं या गप्पें मारने ? आपको बुरा नहीं लगता ?”

“छोड़ो भी, इनकी बातों पर क्या ध्यान देना ? इनमें मैच्युरिटी नहीं आई है अभी तक I मुझे तो इन सबकी आदत-सी हो गयी है I” बातें करती हुई दोनों घर पहुँची I श्रीमती प्रसाद के फ्लैट के सामने ही सुनीता का फ्लैट था I वह शहर के कालेज में प्रवक्ता थी और कुछ ही दिन पहले वहाँ आई थी I एक ही मुलाकात में श्रीमती प्रसाद से बहुत प्रभावित हुई और उनका सम्मान करने लगी I उनमे उसे अपनी माँ की झलक दिखाई देती थी I उसने कहा, “ प्रसादजी, आइए न, दोपहर का भोजन एक साथ करते हैं I”

“तुम क्यों नहीं आ जाती मेरे घर I तुम्हें तो सप्ताह में केवल एक दिन ही छुट्टी मिलती है इसलिए तुम आओ मेरे घर और जो कुछ बना है, दोनों साथ खाएँगे तो अच्छा लगेगा I” श्रीमती प्रसाद के प्यार भरे अनुरोध को सुनीता स्वीकार कर लिया I

“खाना बहुत स्वादिष्ट बना है I मुझे तो केवल अपने लिए खाना बनाने में आलस आता है I आपको नहीं आता ?” हाथ धोते हुए सुनीता ने कहा I दोनों काफी देर तक बातें करती रहीं I

“आता था कभी I जानती हो सुनीता, शुरू से मैं खाना बनाने से भागती थी पर शादी के बाद सालों तक पकाते-पकाते अब आदत पड़ गई है और दूसरों को खिलाने में और भी अच्छा लगता है I बच्चे भी पास नहीं हैं कि उनकी फरमाइश की चीजें बनाऊँ I तुम्हें अगर कुछ खाने का मन हो तो बता देना, मुझे अच्छा लगेगा I”

“हाँ, ज़रूर क्यों नहीं I आपके बच्चे कहाँ हैं और क्या करते हैं ?”

“दोनों सेटल्ड हैं और अपने परिवारों में खुश हैं I दूर से मेरा ख्याल भी करते हैं और साथ रहने के लिए बार-बार कहते हैं I”

“मिसेज प्रसाद, अकेले रहते हुए आपका मन नहीं घबराता ?” सुनीता ने पूछा I

लम्बी साँस लेते हुए मिसेज प्रसाद ने कहा – कभी-कभी मन घबराता है पर भीड़ में रहकर मैंने अकेलेपन का बोझ ढोया है I आज तुम उन औरतों की बात सुनकर मेरे लिए दुखी हो रही थी परन्तु मुझे कुछ असर नहीं होता I जानती हो परम्परा से हट कर औरत के फैसलों पर हमेशा कई प्रश्न उठाना स्वाभाविक है पर सबके प्रश्नों के उत्तर के लिए मैं बाध्य नहीं I अच्छा, अगर तुम्हें बुरा न लगे तो मैं एक बात पूछूँ सुनीता ?

“जी कहिए I आप मेरी बड़ी बहन जैसी हैं I”

“तुमने शादी क्यों नहीं की ?”

“मिसेज प्रसाद, अक्सर लोग यह बात पूछते हैं और मैं इसे हँस कर यह कहकर टाल देती हूँ कि अभी तक कोई मेरे मन लायक जीवनसाथी नहीं मिला पर सच्चाई यह है कि समय रहते जिम्मेदारियों में इतनी उलझ गई कि शादी का ख्याल भी नहीं आया I मैं माँ की अकेली संतान हूँ I मेरे विवाह के बाद उनकी देख-भाल कौन करेगा बस मैंने इस विचार को ही छोड़ दिया I जब माँ की मृत्यु हो गई तब लगता है कि कोई होता तो कितना अच्छा होता I” नम हो आई अपनी आँखों को रुमाल से पोंछते हुए सुनीता बोली I कुछ देर के लिए दोनों के बीच एक चुप्पी सी छा गई I मौन तोड़ते हुए मिसेज प्रसाद ने कहा, “तुम्हें इस बात का दुःख है कि तुमने शादी क्यों नहीं की और तुम अकेले जीवन कैसे बितओगी ?  पर मुझे देखो रिश्तों की भीड़ है मेरे पास, सबकुछ छोड़ आई हूँ I”

“हाँ, मैं यही तो सोच रहीं हूँ कि अपने सबके होते हुए भी इतना बड़ा फैसला क्यों लिया ?”

“सुनीता, चलो, आज मैं तुम्हारे इस प्रश्न का उत्तर दे ही देती हूँ पर यह लम्बी कहानी है I सुनना चाहोगी ?”

“जी, ज़रूर I”

मेरे पति रवि उच्चाधिकारी थे I सुबह ऑफिस जाना और देर रात लौटना, बस यही दिनचर्या थी I अक्सर सरकारी कामकाज से टूर पर निकल जाते I दोनों बच्चों का कब जन्मदिन है, वे कौन सी कक्षा में है, कैसा कर रहें हैं ? इसके लिए उनके पास समय ही न था I इस बीच मेरा सारा समय दोनों बच्चों की प्यारी-प्यारी शैतानियों, देखभाल, पढ़ाने-लिखाने में बीत जाता I बच्चे स्कूल से कालेज जाने लगे I उस व्यस्तता में कब सुबह होती और कब शाम होती, पता ही नहीं चलता I आगे बच्चों के लिए निर्णय लेना था परन्तु जब मैं रवि से घर या बच्चों के बारे में बात करती तो सदा की तरह वे यह कहकर टाल देते कि तुम्हारा पढ़ना-लिखना बेकार है अगर तुम इतनी छोटी –छोटी बातों के लिए मुझसे पूछती हो I उसके बाद मैंने कुछ पूछना भी बंद कर दिया I हाँ, जब सबकुछ ठीक चलता तो शांति रहती पर कुछ भी गलती हुई तो मत पूछो I

जानती हो सुनीता, मैं बचपन से हर काम अपने माँ-पिताजी से पूछ कर ही करती थी I शादी के बाद कोई निर्णय रवि से बिना पूछे नहीं ले पाती थी I नतीजा, मेरी इस आदत से रवि झुँझला जाते थे I

“यह नहीं हो सकता मिसेज प्रसाद I आप तो आत्मनिर्भर महिला हैं, मुझे विश्वास नहीं हो रहा है,” सुनीता ने कहा I

“यह सच्चाई है सुनीता I अब भी बच्चों से सलाह लेती हूँ I”

“और आपके पति ?”

“ठीक हैं I” मिसेज प्रसाद ने आगे बताया – बच्चों के जाने के बाद घर सूना हो गया और मैं बेकार I हम दोनों के बीच फासला और भी बढ़ गया I सारी सुविधाओं के बीच सोचती कि खालीपन कैसे भरूँ ? पारिवारिक व्यस्तता के बीच भूल ही गई कि मेरा भी कोई अस्तित्व है I क्या मैं मात्र सबकी इच्छा पूर्ति का साधन हूँ I सोचा छोटी-मोटी नौकरी तलाश कर लूँ, इससे समय कट जाएगा I नौकरी छोटी ही थी साथ ही समाज सेवा हो जाती थी I इसने मुझे एक नया आयाम दिया और आत्मविश्वास भी I तब मुझे अपनी ज़िन्दगी से कोई शिकायत नहीं थी I हाँ, मेरा जीवन कुछ ज्यादा ही व्यस्त हो गया था I अक्सर मुझे घर लौटने में देर हो जाती थी I कोशिश करने के बाद भी रवि कार्यालय से लौटने के बाद मैं  घर पहुँचती और घर के कामों में व्यस्त हो जाती I कभी सोचा भी नहीं था कि एक-दूसरे से इतना प्यार करने वाले मेरी और रवि की ज़िन्दगी मात्र समझौता बनकर रह जाएगी I

उसी दौरान एक दिन कार्यालय से लौटते वक्त खरीदारी करते हुए मेरी मुलाकात एक महिला से हुई I बातों-बातों में उन्होंने मुझे अपने घर आने का निमन्त्रण दिया I जब मैं उनके घर पहुँची तो पता चला कि वे अकेली रहती हैं परन्तु उनकी प्रसन्नता एवं जोश देखकर मुझे बहुत आश्चर्य हुआ I उनकी बातों से पता चला कि पति के छोड़ कर जाने के बाद उन्होंने परित्यक्ता स्त्रियों के लिए कार्य करना आरम्भ किया I आज उनके परिवार की संख्या बहुत बड़ी है I

मैं जब वहाँ से लौटी तो मेरे अन्दर एक नया उत्साह भरा था I मैंने सोचा कि इस विषय पर रवि से बात करूँगी I शाम को जब रवि आये तो मुझे घर पर देख कहा – ओह ! आप घर पर हैं, आश्चर्य है कि आज मेरे लिए कैसे समय निकाल लिया मैडम ने ? उनका व्यंग्य सुनकर मैं बहुत आहत हो गई पर हमेशा की तरह चुप न रह सकी और कहा – मैंने तो आपसे पूछ कर ही काम करना शुरू किया था, अब शिकायत क्यों ? बस फिर क्या था रवि का पारा सातवें आसमान पर चढ़ गया I वे चिल्लाते हुए बोले –

“तुमको नौकरी करने की अनुमति दी थी, घर-घर घूमने की नहीं I समाज-सेवा के बहाने न जाने कहाँ-कहाँ भटकती हो ? तुम्हें केवल काम नहीं नाम चाहिए, वाह वाही चाहिए I कहीं भी जाओ , लोग तुम्हारे बारे में पूछते हैं I”

“क्यों आपसे मेरी प्रशंसा नहीं सही जाती ? परन्तु लोग जब आपकी बढ़ाई करते हैं तो मुझे बहुत

गर्व होता है I”

“मेरी बात अलग है लेकिन तुम्हारा घर-घर जाकर समाज-सेवा करना मुझे पसंद नहीं है I बस कल तुम जाकर इस काम से इस्तीफा दे दो I” रवि ने मानों फरमान सुना दिया I

बहस इतनी ज्यादा हो गई थी कि मैं अपनी बात कहा ही नहीं पाई I सारी रात मैं नहीं सो सकी I दिल में कई उलझनें थी I इतने सालों की गृहस्थी थी और जीवन कभी खुद के कोई निर्णय नहीं लिया था I शादी से पहले माँ-बाबा और शादी के बाद रवि के अनुसार गाड़ी चलती रही I सोचा सबकुछ छोड़कर घर में रहूँ I अगले दिन सुबह नाश्ता करने के बाद रवि काम पर चले गए I मैं बरामदे मैं बैठी अखबार पढ़ रही थी, उस समय मुझे एक रजिस्ट्री मिली I खोल कर देखा तो एक स्वयंसेवी संस्था का स्वीकृति पत्र था I कुछ दिनों पहले मैंने उन्हें आवेदन पत्र भेजा था I मुझे अपनी उलझनों का समाधान मिल गया था और मैंने जनसेवा के लिए जाने निश्चय कर लिया I मुझे नहीं मालूम की यह ठीक था या गलत पर मुझे शांति का अनुभव हुआ की मैंने अपनी ज़िन्दगी का पहला और अंतिम निर्णय स्वयं लिया I

— डॉ अनीता पंडा

डॉ. अनीता पंडा

सीनियर फैलो, आई.सी.एस.एस.आर., दिल्ली, अतिथि प्रवक्ता, मार्टिन लूथर क्रिश्चियन विश्वविद्यालय,शिलांग वरिष्ठ लेखिका एवं कवियत्री। कार्यक्रम का संचालन दूरदर्शन मेघालय एवं आकाशवाणी पूर्वोत्तर सेवा शिलांग C/O M.K.TECH, SAMSUNG CAFÉ, BAWRI MANSSION DHANKHETI, SHILLONG – 793001  MEGHALAYA aneeta.panda@gmail.com