लघुकथा

निराशा

आज सचमुच निराशा उनके चेहरे पर छप चुकी थी. और क्यो न हो ऐसा जिस लड़के से उन्होंने आशा लगाईं थी कि वो बुढ़ापे में कुछ काम आएगा वो अब साथ छोड़ चुका है क्योंकि उनका छोटा घर को दोस्तों को दिखाने में शर्म महसूस होने लगी थी. क्यो न हो वो शहर वाला हो चला है।और शहर वालो की बात ही अलग होती है। पढ़ने लिखने में होनहार था सो शहर भेजा था उसे मगर क्या पता था कि शहर वालें गांव के जीवन को आनंद के साथ नहीं जी सकते हैं सचमुच अब निराश के सिवा कुछ नहीं पास मेरे

— अभिषेक जैन

अभिषेक जैन

माता का नाम. श्रीमति समता जैन पिता का नाम.राजेश जैन शिक्षा. बीए फाइनल व्यवसाय. दुकानदार पथारिया, दमोह, मध्यप्रदेश