सामाजिक

जीना जरूरी या जिंदा रहना

शीर्षक देखकर चौंक गये न आप भी, थोड़ा स्वाभाविक भी है और अजीब भी, पर निर्रथक अथवा अव्यवहारिक नहीं है, बल्कि चिंतन योग्य है कि जरूरी क्या है ‘जीना या जिंदा रहना’,। क्योंकि जीना कौन नहीं चाहता, जीना ही तो हम आप ही नहीं हर प्राणी हमेशा हमेशा के लिए ही चाहता है, पर ऐसा हो, ये भी संभव नहीं है और ऐसा कर पाना ईश्वर के भी बस में भी अब नहीं रहा। क्योंकि ईश्वर अपने ही विधान का अतिक्रमण नहीं करते। संचार के संचालन के लिए कुछ नियम ईश्वर के द्वारा बने/बनाए गए हैं, जिसमें बहुत कुछ हमें/आपको कतई अच्छे नहीं लगते या अव्यवहारिक लगते हैं। परंतु उनके लिए उनकी प्रतिबद्धता है, जो सृष्टि के संचालन में पूर्णतया उचित है। जैसे हम भी तो जो करते हैं, अपनी ही सुविधा, सहलियत, अपनी या अपनों के हित के अनुसार ही करते हैं। हमें इससे कोई फर्क नहीं कि औरों पर इसका असर कैसा होगा, उसे कैसा लगेगा या किस तरह प्रभावित होगा? फिर ईश्वर तो संसार का मालिक है और उसे हर कण तक को ध्यान और निगाह में रखना होता है और वो रखता भी है।वो कभी इससे प्रभावित भी नहीं होता कि हम आप उसके और उसकी व्यवस्था अथवा क्रियान्वयन के बारे में क्या सोचते हैं। खैर….
प्रश्न उठता है हम सही मायनों में क्या सिर्फ़ जीना भर चाहते हैं या सचमुच जिंदा रहना ? संसार में कितने लोग हैं जो जीना नहीं जिंदा रहना चाहते हैं, सब जीना ही तो चाहते हैं ,बस केवल चंद लोग ही हैं जो जीने की लालसा नहीं रखते, क्योंकि वो इस दुनियां से विदा होकर भी जिंदा रहना चाहते हैं। शायद नहीं निश्चित ही बहुत कम लोग या यूँ कहें मात्र अपवाद स्वरूप।
जीवन जीना और जीवन से मोह मानवीय ही नहीं हर जीवधारी की प्रवृति है,अपने लिए तो सभी जीवित रहते हैं,जीते हैं और लगातार भी लगातार करते रहते हैं। जानवर भी जीने का यत्न करता ही रहता है। हर प्राणी मानव ,जीव जंतु ,पशु पक्षी,पेड़ पौधे,कीट पतंगे आदि आदि सभी अपने हिसाब से जीते ही नहीं रहते लगातार जीवित रहने का यत्न, प्रयत्न भी करते रहते हैं।
परंतु क्या जीना ही जिंदा रहने का भाव है ,शायद हाँ या फिर शायद नहीं भी ।जिंदा रहने के लिए किसी और व्यक्ति, परिवार, जीव, समाज, राष्ट्र और संसार के लिए कुछ विशेष ,कुछ अलग ,कुछ अनूठा, कुछ विचित्र करना पड़ता है,परिवार, समाज और कुंठित लोगों के ताने, विरोध, उपेक्षाएं और दुश्वारियां भी झेलनी पड़ सकती हैं। क्योंकि सोना तपकर ही कुंदन बनता है। हमारे महापुरुष, संत महात्मा या आज हम, हमारा परिवार, हमारा समाज, हमारा राष्ट्र/संसार जिन्हें भी याद करता है, तो इसीलिए नहीं कि वो हमारे बीच नहीं हैं, क्योंकि आम आदमी की तो उसकी ही तीसरी या चौथी पीढ़ी शायद नाम तक नहीं याद रख या जान पा रही है, फिर याद करने, उनके कृतित्व, व्यक्तित्व की चर्चा या अनुसरण का तो प्रश्न कहाँ रह जाता है? परंतु उन लोगों को जरूर याद करते हैं, महिमा मंडित करते हैं ,पूजते हैं, इतिहास के पन्नों में दर्ज उनको पढ़ते हैं, अनुसरण करते/करना चाहतें हैं, प्रेरणास्रोत मानते हैं, तो वो सिर्फ़ इसलिए कि वो दुनिया में न होकर भी जिंदा हैं। उनका व्यक्तित्व /कृतित्व ही ऐसा रहा है कि जाने कितने वर्षों पूर्व दुनिया से विदा होने के बाद भी जिंदा हैं।हमारे दिलों में, समाज, राष्ट्र और संसार में। छोटे छोटे कदमों से भी हम जिंदा रहते/रह सकते हैं। रक्तदान, नेत्रदान, अंगदान, देहदान, किसी की किसी रुप में मदद करना, किसी की निःस्वार्थ जान बचाना,किसी के लिए जान दे देना, समाज, राष्ट्र और संसार के लिए समर्पित हो जाना जिंदा रहने का सूत्र बन जाता है। ये सब सिर्फ़ इंसानों के लिए ही नहीं, पशु पक्षी, पेड़ पौधे, पहाड़, पठार, झील, झरने, नदियां नाले ,समाज, समुदाय, राष्ट्र कुछ भी कहीं भी हो सकते हैं।
आँखें दान करके क्या मरकर भी संसार में उस व्यक्ति की आँखों से दुनियां नहीं देखते रह सकते हैं। इसी तरह अंगदान, देहदान ,समयदान, सेवादान आदि असंख्य विकल्प हैं जिससे हम जिंदा रह सकते हैं। यह अलग बात है कि स्थूल काया संसार में भले ही न रहे ,पर सूक्ष्म काया इस संसार में जरूर रहेगी। हो सकता है आपके कदमों के चर्चा जीवित रहते हुए न हो। परंतु जैसा कि सर्वविदित है कि अहमियत का अहसास तब होता है, जब हम उसे खो देते हैं।
छोटा सा उदाहरण अपने सैनिकों का लीजिये। उन्होंने देश और अपनी धरती माँ के लिए सबकुछ भुला दिया, बहुत से शहीद भी होते रहते हैं। पर वो मरते नहीं हैं,वो तो हमेशा हमेशा के लिए हमारे, आपके, समाज और राष्ट्र के दिलों में जिंदा रहते हैं अमर हो जाते हैं,धरोहर बन जाते है।
जिंदा रहने के लिए लंबी उम्र तक जीना जरूरी नहीं है, क्योंकि यदि ऐसा होता तो आज भगत सिंह, राम प्रसाद बिस्मिल, अब्दुल हमीद, स्वामी विवेकानंद को भला हम क्यों और कैसे याद करते?जबकि ये सभी अल्पायु में ही संसार से विदा हो गये। लेकिन अल्पायु में भी उनके व्यक्तित्व/कृतित्व का ही कमाल है कि वो आज भी संसार में जिंदा हैं और आगे भी रहेंगे।
संक्षेप में सिर्फ़ इतना कि कृतित्व जब व्यक्तिव बन जाता है,तब जिंदा रहने का आधार स्वतः बन जाता है।
आशय मात्र इतना भर है कि जीना और जिंदा रहना दोनों का अपना महत्व है, जिंदा रहने के लिए भी जीना जरूरी है,परंतुअनिवार्य नहीं। ईश्वरीय विधान के अनुरूप हमें हमेशा जिंदा रहने के लिए सतत उद्दम करते रहना चाहिए, क्योंकि हमारे जीने पर कब पूर्णविराम लग जायेगा, यह तो पता ही नहीं है। परंतु हम सबका नजरिया बहुत अलग अलग है या हो सकता है और होना भी स्वाभाविक है। बस सब कुछ नजरिए का फर्क भर है।
……..और अंत में हमें सोचना है कि हमें जीना है सिर्फ़ जीना या मरकर जिंदा रहना। विचार हमें ही करना है। आइए !एक बार विचार करें कि ‘जीना जरूरी है या जिंदा रहना। शुभकामनाओं के साथ

*सुधीर श्रीवास्तव

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