कविता

मन की आँखें

हमारी आँखें
बस वही देखती हैं,
जो हमारे मन की आँखें
दिखाना चाहती हैं।
सच तो यह है कि
हमारी भौतिक आँखें अंधी हैं
मन की आँखों के बिना
इनका कोई अस्तित्व नहीं है,
वरना भौतिक आँखों से
वंचितों के जीवन में
भला रखा क्या है?
उनके पास देखने के लिए
मन की आँखों के सिवा
आखिर और क्या है?

*सुधीर श्रीवास्तव

शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल, बड़गाँव, गोण्डा, उ.प्र.,271002 व्हाट्सएप मो.-8115285921