लघुकथा

काव्या

स्टेज पर काव्या ने वीना के सुमधुर तार बिखेरे और लक्ष्मी बड़े अचरज से काव्या को मंत्रमुग्ध हो देखे जा रही थी। हाल खचाखच भरा था, हर कोई कुछ क्षणों के लिए आज के सुरमयी पलों का आनंद ले रहा था।
लक्ष्मी के विचार इसी समय काव्या से पहली मुलाकात पर कदम रखने लगे। किसी पड़ोसन से मिलने लक्ष्मी अस्पताल गयी थी, अचानक पड़ोस के बिस्तर पर एक दुबली पतली काया को अकेले लेटा देखा। ये लक्ष्मी का स्वभाव था कि वो हर किसी की सहायता के लिए हाथ बढ़ाना चाहती थी और उस समय भी उसने परिचय करने हेतु एक मुस्कराहट के साथ हेलो कहा। वो क्षीण काया ने बड़े हिकारत से उसे घूरा। फिर भी लक्ष्मी उसके पास गई, तबियत का हाल पूछा और उसकी कमजोरी की हालत देखकर बैग में रखा वेज सूप उसे पिलाया जो वो पड़ोसन के लिए लायी थी। कुछ संयत होकर काव्या ने अपने बारे में बताया, अपना पता भी बताया। कुछ समय बाद लक्ष्मी ने उसे अपने घर के पास पार्क में बुलाया, क्योंकि वो पास में ही रहती थी। जितनी देर काव्या रही, बस ससुराल की, दोस्तो की, बच्चो की बुराइयां करती रही। लक्ष्मी ने दुनिया देखी थी, उसे पता था, बचपन के माहौल का व्यक्तित्व पर सबसे अधिक असर पड़ता है। लक्ष्मी ने बड़े प्रेम से उससे बचपन और मायके के बारे मे पूछा। काव्या का कहना था, “माँ के साथ बैठकर, टेलीविज़न के हिंदी सीरियल बहुत देखती थी, और माँ खलनायक पर बहुत चर्चा करती थी, दुनिया ऐसी ही है, ये बात मेरे दिमाग मे घर कर गयी।” उसके उपरांत ही मेरे दिमाग मे सबमे बुराई ढूंढने की आदत सी हो गयी, क्या करूँ, मुझे कोई भी अच्छा नही लगता।
लक्ष्मी समझ गयी, त्रुटि कहाँ हुई।
उसने काव्या से कहा, “अब मेरी बात सुनो, दुनिया को तुम जो भी दोगी, वही तुम पाओगी, प्यार के बदले प्यार मिलता है, और सबसे बड़ी बात दुसरो के बारे में सोचना छोड़ो, और बचपन मे जो शौक तुम्हे बहुत प्यारे थे, उसपर ध्यान दो।”
“उसने एक शब्द बोला, मैं वीना बहुत अच्छा बजाती थी।”
और लक्ष्मी ने उसे राह दिखाई आज काव्या स्टेज पर अपने रंग बिखेर रही है।

— भगवती सक्सेना गौड़

*भगवती सक्सेना गौड़

बैंगलोर