कविता

भारतीय किसान

मिट्टी में मैं हूँ पला बडा़,मिट्टी ही मेरा है सोना।
मुझको मिट्टी पर हँसना है,मुझको मिट्टी पर है रोना।

बहा पसीना इस मिट्टी पर,मैं अन्न यहाँ उपजाता हूँ।
बारिश में चलूँ गर्मी में जलूँ,ना सर्दी से घबराता हूँ।
परिश्रम ही मेरा जीवन है,परिश्रम ही मेरी काया है।
मेरी है धरा,मेरा अम्बर,मेरी ही धूप और छाया है।
मिट्टी में बीता है बचपन ,मिट्टी में बीती जवानी है।
काश बुढा़पा भी गुजरे,बस इतनी मन में ठानी है।
सदा ऱिणी मैं रहता हूँ,बस इसी बात का है रोना।
मिट्टी में मैं हूँ पला बडा़,मिट्टी ही मेरा है सोना।

कई बार प्रकृति भी,मुझसे खफा हो जाती है।
पाला ,बारिश बनकर के,वो अपना कहर ढा जाती है।
सपनों की माला बिखर गई,मैं फिर भी ना घबराता हूँ।
नेत्रों में लेके नया स्वपन,मैं आगे बढ़ता जाता हूँ।
मेरे घर का आँगन छप्पर,इसबार इन्हें नया करता हूँ।
हरबार टूटता है सपना,बस यही दर्द बयां करता हूँ।
ना मुझको कोई है शिकवा,ना मुझको कुछ पाना खोना।
मिट्टी में मैं हूँ पला बडा़,मिट्टी ही मेरा है सोना।

प्रदीप शर्मा

आगरा, उत्तर प्रदेश