कविता

दुआओं की रौशनी

कुछ इस कदर लंबे हो गए हैं रास्ते,
न मंजिल दिखती है !
न सफर पूरा होता है।
बहुत धुंध बढ़ गयी है
आज मौसम में, आवाज तो जानी
पहचानी सी है,
बस चेहरा दिखाई नहीं देता।
मरहम-ए-उम्मीद में दिखा दिए  जख्म
एक काफिर को, वो मौका मिलते ही
हद-ऐ- जुर्म से गुजर गया ।
किस मुठ्ठी में कैद करूँ जज्बात अपने,
जरा सी सुकूँ -ऐ-महक भी आ जाये
तो हाथ खुल जाते है,
खेल ली हो तूने भी अपनी बाजी
तो चल एक सौदा कर ले,
तेरे दिए जख्मो को तू
अपने हाथों से सिल दे, आज ये  सौदा 
सरेआम करते है,जीत का हर जश्न
तेरे नाम करते हैं, दुआओं की रौशनी से
उजाला करके तेरी महफ़िल में,
आज फिर इस रिश्ते को बेनाम दिया।

— डॉ. संयोगिता शर्मा

डॉ. संयोगिता शर्मा

बबराला, सम्भल-उत्तर प्रदेश M- 8476916036