कविता

चालीस के पार

चालीस के पार जा रही हूँ
हाँ उम्र बढ़ रही है मेरी,
तो उसमे क्या बात है।
अच्छा दिखना पसंद है,
मेरे अपने जज़्बात हैं।
मैं कब क्या पहनूंगी,
यह लोग क्यों सोचें।
जब डूबती हूँ ग़म में,
क्या उन्होंने आँसू पोंछे।
बच्चों जैसी मासूमियत,
अब भी दिल में समायीं हैं।
ये झुर्रियां तो बस जनाब,
अनुभवों से कमायीं हैं।
आप जिएं ज़िन्दगी,
तो दिल बच्चा है जी।
मेरे दिल का जन्म प्रमाण,
क्या कच्चा है जी??
चालीस वर्ष जीवन के,
दायित्वों की भेंट चढ़ गए।
सपने बंद पड़े आँखों में,
ठहरे पानी की तरह सड़ गए।
ख्वाहिशों की संदूक के,
सारे जाले उतारूंगी।
जीवन का हर एक दिन,
त्योहार की तरह सवारूंगी।
अपने लिए जीना व आजादी,
दोनों का अर्थ जानती हूँ मैं।
अच्छे और बुरे का फर्क़,
बखूबी पहचानती हूँ मैं।
गरिमा, शालीनता, संस्कार,
मेरी आत्मा को सजाते हैं।
और आप व्यक्तित्व का आकलन,
परिधानों से लगाते हैं।
जब बात होगी संस्कृति की,
सोलह श्रृंगार कर इठलाऊँगी।
पर कभी कभी जींस के साथ,
काला चश्मा भी लगाउंगी।
रिश्ते सभी तो वही हैं,
बस सोच नयी ला रही हूँ।
अनुभवों की नाव पर सवार,
चालीस के पार जा रही हूँ।

— दीप्ति खुराना

दीप्ति खुराना

वरिष्ठ कवयित्री व शिक्षिका, स्वतंत्र लेखिका व स्तम्भकार,मुरादाबाद'- उत्तर प्रदेश