कविता

हम दर्दी इश्क

सर से पाँव  तक पानी-पानी है समंदर मगर
आंसू की तरह आंख तक आ भी नहीं सकता
सुना है हमने झूठ तो पैर पसारे बैठा है
जीते-जी कोई अच्छा कहला भी नहीं सकता!!
सुना था माह-ओ-नज्म मिलेगा बाजार-ए-इश्क में
जो मिला उससे मैं उजाला ला भी नहीं सकता
सरापा चूर है सराब- ए-जात में सब यहाँ
जात-ऐ-बशर उन्हें आइना दिखा भी नहीं सकता!!
उल्फत के बदनसीब मोहल्ले मे बैठे है हम
खुशी की गुंजाईश हो या दुख, किसी क़ो बता भी नहीं सकता
मैंने देखा है जनाजो पर अक्सर मेलो क़ो लगते
उस भीड़ मे एक तेरी मोहलत मैं कैसे बता सकता!!
फ़सल-ए-बहार भी अक्सर उजाड़ देता है नशेमन क़ो
किताब-तकदीर का लिखा कोई मिटा भी नहीं सकता
वैसे तो एक आँसु ही बहा कर लें जाए मुझे
ऐसे कई तूफान आ जाए मुझे कोई हिला भी नहीं सकता!!
रकीब भी मल्तविश था खून-ए-नाहक की साजिश मे
मैं ना-फहम उसके साथ वो दोहरा भी नहीं सकता
तू रु-ब-रु है मुझसे ए-इश्क
मेरे दिल है तेरी जगह और वो मैं दिखा नहीं सकता!!
तेरे फितरत मे आज गैरत का अंजाम नहीं
ज़ालिम-ए-इश्क तुझे भुला भी नहीं सकता
अब राह भी हम दोनों के अलग हो गए
क्योकि मैं झूठ तू सच, ये कोई बता नहीं सकता!!
— राज कुमारी

राज कुमारी

गोड्डा, झारखण्ड