*प्रकृति का इशारा है*
प्रकृति का इशारा है।
दर्द जो पसारा है।
दूर तक जिधर देखो,
व्यक्ति बेसहारा है ।
खो गई हंसी लब से ,
ग़म ने हाय मारा है ।
है वबा अजब सी यह,
यह जहान हारा है ।
हर तरफ खमोशी है
मातमी नज़ारा है ।
धुंध ने ढका ऐसा,
खो गया सितारा है ।
वक्त ने बेरहमी से,
कर्ज यह उतारा है ।
काटना शज़र तेरा,
जिसने सबको मारा है।
विष भरी करी नदियाँ,
रो रही त्रिधारा है ।
अब धरा हुई क्रोधित,
दोष सब हमारा है ।
गिनतियाँ हुई उल्टी,
चढ़ा आज पारा है ।
कायनात का गर्जन,
मनुज अब बेचारा है ।
‘मृदुल’ सोंच बदलो जब,
तब मिले किनारा है ।
— मंजूषा श्रीवास्तव ‘मृदुल’