लघुकथा

चाँद – बदली की ओट में

शाम गहरा गई थी। आसमान में चाँद चमक रहा था और रजनी अपने कमरे में पड़ी सिसक रही थी।
आज वह सुबह से ही खुद को बड़ी असहज महसूस कर रही थी। हर साल की तरह आज भी उसने करवा चौथ का व्रत रखा था, लेकिन जिसके नाम पर उसने यह व्रत रखा था वह अमर तो उससे कोसों दूर अपने बिजनेस टूर पर था।
 उसके मन में कई तरह के विचार उमड़ घुमड़ रहे थे। ‘क्या उसका अमर अब उससे दूर जा रहा था ? कई दिनों से उससे खिंचा खिंचा सा रहने लगा था अमर। अनमना सा, गुमसुम ! क्या अब उसकी रुचि उसमें कम हो गई थी ? बिजनेस टूर पर जाते हुए वह कितना उत्साहित और प्रसन्न था, क्या कोई और आ गई है उसकी जिंदगी में ?’
अनमने मन से चलती हुई वह ऊपर छत पर आ गई। अडोस पड़ोस की छतों पर सुहागिनें अपने अपने पतियों के साथ मौजूद थीं। कुछ उनकी आरती उतार रही थीं, तो कुछ उनके हाथों से कुछ खाकर अपना व्रत तोड़ रही थीं, कुछ अभी अभी आई थीं और छलनी के मध्य से आसमान में चाँद को और फिर सामने खड़े अपने चाँद को निहार रही थीं।
ऐसे उत्साहजनक माहौल में भी उसके मन में दर्द की एक तेज टीस उठी और वह तड़प कर रह गई। तभी उसका फोन उसे पुकार बैठा।
अनमने मन से उसने फोन की स्क्रीन पर देखा, अमर ने वीडियो कॉल किया था। कॉल एक्सेप्ट करते ही बड़ी सी स्क्रीन पर अमर का मुस्कुराता हुआ चेहरा देखकर उसका मन मयूर नाच उठा लेकिन चेहरे पर तल्खी के भाव बरकरार रहे। तल्ख चेहरे पर नजर पड़ते ही अमर को उसकी नाराजगी का अहसास हो गया था सो अपनी मुस्कुराहट बरकरार रखते हुए बोला, “क्या बात है ? आज के इस शुभ दिन पर भी मेरा चाँद खोया खोया सा क्यों है ?”
“आपको चाँद की कोई फिक्र भी है ?” मोबाइल का कैमरा अपने आसपास की छतों की तरफ घूमाते हुए उसने कहा, “देखो ! आज महिलाएँ कितनी खुश हैं अपने अपने चाँद के साथ ! और मैं….!”
उसकी बात बीच में काटकर अमर बोल पड़ा, “मैं तो तुम्हारी साँसों में बसा हूँ रज्जो ! मेरा जिस्म दूर है तुमसे जो कि मेरी मजबूरी भी है लेकिन मन तो हरदम तुम्हारे पास ही होता है। तुम्हें मैं परेशानी में नहीं डालना चाहता था इसलिए लॉक डाउन के चलते कारोबारी नुकसान की चर्चा तुमसे नहीं किया। अकेले परेशान रहा और कई महीनों के अँधेरे भविष्य के बाद आज उम्मीद की एक किरण जगी है। एक बहुत ही फायदेमंद डील हुई है आज और मुझे पूरा यकीन है कि हमारा कारोबार इसकी सहायता से फिर पुरानी पटरी पर लौट आएगा। …बस इतनी सी बात है रज्जो…कारोबारी उलझन परेशानी के चलते मैं तुम्हें पर्याप्त समय नहीं दे सका ..लेकिन तुम्हें भी तो मेरी मजबूरी समझनी होगी न …! एक तुम ही तो हो, जो मुझे समझ सकती हो ! …चलो..! अब और देर न करो ! अब जल्दी से पानी पी लो ..समझो मैं पिला रहा हूँ। चलो …मुँह खोलो …ऊँ …हां ..हाँ ..शाबास ! ये हुई न बात ! गुड गर्ल !”
और उसकी बात सुनते सुनते रजनी मंत्रमुग्ध सी जैसा वह कहता गया, करती गई। उसके पानी पीते ही अमर के चेहरे की मुस्कान और खिल सी गई और इसी के साथ खिल गया रजनी का कोमल मन जो कहीं न कहीं अमर के दूर होने के अहसास से कुम्हला सा गया था। उसे लगा अमर उसके सामने ही खड़ा उसे निहार रहा है और वह लाज से दोहरी हो गई। दूर होकर भी नजदीकी के इस अहसास मात्र ने उसकी पूजा को सफल बना दिया और कुछ देर पहले तक सिसक रही रजनी अब गुनगुनाते हुए चहकते हुए सीढियाँ उतर रही थी।
शंकाओं की काली बदली छंट चुकी थी और उसका चाँद अपने पूरे आकार में उसके मन के फलक पर चमक रहा था।

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।