कविता

कुंदन सी निखर गई है

विमर्श की धूप में तप कर कुंदन हो गई है ये देखो आजकल की नारियां थोड़ी मुखर होना सीख गई है।
बहुत सह लिए ताने उल्हाने वाग्बाण से उलझते अपनी बात रखते मुँहतोड़ जवाब देना सीख गई है।
काँच कनिका नर्म मुलायम मखमली आवाज़ की मल्लिका प्रताड़ना की राह से उठकर हुकूम बजाना सीख गई है।
नहीं बनना महान मुझे ना देवी का दर्जा चाहिए इंसान हूँ अहसास को समझो मुस्कुराते इतना कहना सीख गई है।
कितनी सदियाँ बीत गई पन्नों पर ठहरे स्पंदन एक-एक शब्द की लड़ीयाँ उकेरते हक को छीनना सीख गई है।
अबला बेचारी लाचार कमज़ोर कल तक थी कहलाती मर्दों की बनाई दुनिया में अपना वजूद तलाशना सीख गई है।
कब तक तकती दरारों से दहलीज़ लाँघकर निकल पड़ी इस धरती से कदम उठकार नभ में उड़ना सीख गई है।
फूलदल सी कोमल थी कल तक आज वज्र सी कठोर है हर मुकाम पर लड़ते अपना परचम लहराना सीख गई है।

— भावना ठाकर ‘भावु’

*भावना ठाकर

बेंगलोर