लघुकथा

शीत लहर !

लक्ष्मी चूल्हा जलाते जलाते सोच रही थी। काश ऐसा होता, मेरे लाडलों के लिए मैँ सारे उचित प्रबंध कर पाती। तीनों बच्चे बड़े सयाने हैं। न कभी कोई जिद, न कोई हठ। जो मिला उसी में संतोष मान लेते हैं। अपनी मां को जरा भी दुख नहीं देना हैं उन्हें। बहुत ही समझदार। मोहिनी छोटी ही तो हैं, बड़ी सयानी हैं। कन्नू मन्नू, अपने जुड़वा भाइयों का पूरा ध्यान रखती हैं। शिकायत का कोई मौका नहीं देती। अपने हिसाब से संभाल लेती हैं।

 

             लक्ष्मी सरला जी के यहां खाना बनाने जाती हैं। तरह तरह के व्यंजन बनाना, हररोज़ सूप, सलाद, पिझा, पास्ता सब कुछ सीख गयी हैं। सलीके से परोसना भी। कभी कभी कन्नू मन्नू को पड़ोसी के यहां छोड़ मोहिनी को साथ ले जाती। नन्हीं सी मोहिनी उसके काम में हाथ बटा देती। फुर्ती और सलीके उसे काम करता देख सरला जी की बहन उसे अपने साथ ले जाना चाहती थी। अच्छी पगार का लालच भी दिया उसने। लेकिन अपने साथी का साथ छूट जाने के बाद लक्ष्मी और अधिक सचेत हो गयी थी। उसने सुना था, ये पैसेवाले हमारी बेटियों को ले तो जाते हैं, पर काम बहुत ज्यादा करवाते हैं। दिन रात खटो। न ढंग का खाना देते हैं। बचा खुचा खाना तो मैं भी खिला देती हूं। पढ़ाई भी करवा रही हूं। साथ ही बाजू की मंगला उसे सिलाई भी सिखा रही हैं। आत्मनिर्भर बनाना हैं उसे। हमारे साथ कितनी खुश हैं वह। कन्नू मन्नू उसके बिना रह ही नहीं पाएंगे। चूल्हा ठंड की वजह से बार बार धीमा हो रहा था। राख में निखारें दब रहे थे। शीत लहर कहर ढा रही थी। तेज हवाएं झोपड़ी का दरवाजा बार बार खोल रही थी। बच्चे ठंड से बेहाल हो रहे थे। मां मां, कुछ गरमगरम खाने को दे दो। लकड़ियां खत्म होने जा रही थी। कुहासे के कारण सुखी लकड़ियां मिलना मुश्किल हो रहा था। क्या करे? क्या मुझे मोहिनी को भेज देना चाहिए था मंगला जी के साथ? क्या फर्क पड़ेगा वो न पढ़ेगी? मन ही मन द्वंद चल रहा था। मां, बहुत ठंड लग रही हैं। लक्ष्मी ने झट से काम निपटाया, और बच्चों को सुलाने की चेष्टा करने लगी।  आज उसका मन उदास हो रहा था। मोहिनी के बापू,आप कहाँ चले गए? कैसे होगा हमारा गुजारा? अपने लाडलों को आँचल से ढककर ऊष्मा देने का सतत प्रयास कुछ काम नहीं आ रहा था। कसकर पकड़ लिया अपने लाडलों को। लोरी सुनाने लगी वह। मीठी लोरी सुनते सुनते बच्चे सो गए।
                           अपना बाकी काम निपटाने में वह व्यस्त हो गयी। अचानक गाड़ी के ब्रेक की आवाज से डर गई । कौन होगा? हम गरीब के लिए कौन आधी रात आया होगा? उसने डरते डरते दरवाजा खोला। बाहर दो कंबल पड़े थे। किसी खजाने की तरह लपककर उठा लिए कंबल और ठंड से ठिठुरते अपने बच्चों को ओढाती हुए न जाने कितनी दुआयें, कितनी मंगल कामनाएं दे दी उसने उस कंबल दाता को। मेरे बच्चों को ठंड से बचाने कोई फरिश्ता ही आया होगा। सुना था उसने, लोग चुपचाप दान देकर निकल जाते हैं। बच्चों को सहलाती उसकी आंखे भर आयी। प्रभु जी, आपका का लाख लाख शुक्र हैं। उम्मीद की लौ से जगमगा उठा उसका मन। बार बार धन्यवाद देती अपने लाडलों को सहला रही थी वह।

*चंचल जैन

मुलुंड,मुंबई ४०००७८