स्वास्थ्य

प्राकृतिक चिकित्सा में षट्कर्म

षट्कर्म (अर्थात् छः कर्म) हठयोग में बतायी गयी छः शोधन क्रियाएँ हैं। वास्तव में ये क्रियायें आयुर्वेद के अन्तर्गत हैं और प्राचीन वैद्य इनका आवश्यकतानुसार उपयोग करके शरीर को दोषों से मुक्त किया करते थे। साथ ही वे उचित औषधियाँ भी दिया करते थे, जिनसे रोगी पूर्णतः स्वस्थ हो जाता था। लेकिन कालांतर में वैद्यों का जोर औषधियों के प्रयोग पर अधिक हो गया, इससे वे षट्कर्मों को भूल गये। आजकल इनका प्रयोग बहुत सीमित हो गया है। लेकिन प्राकृतिक चिकित्सा ने इन क्रियाओं को आधुनिक युग के अनुसार आवश्यक सुधार करके अपनाया है।
आयुर्वेद के मतानुसार हमारे शरीर में तीन तरह के दोष होते है-वात, पित्त और कफ। योग में कई ऐसी शोधन क्रियाएं हैं, जिनके नियमित अभ्यास से हमें इन दोषों में किसी दोष की अधिकता या विकृति से होने वाले रोगों से मुक्ति मिल जाती है। षट्कर्मों के अंतर्गत नेति, कपालभाति, धोति, नौलि, वस्ति और त्राटक ये छः क्रियायें आती हैं। ये क्रियाएं कुछ जटिल होती हैं इसलिए इनका अभ्यास किसी प्रशिक्षित-अनुभवी योगाचार्य या प्राकृतिक चिकित्सक के निर्देशन में ही करना चाहिए। षट्कर्म शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य दोनों के लिए एक अच्छा योगाभ्यास है।
षट्कर्म के लाभ
1- षट्कर्म की क्रियाएँ शरीर में एकत्र हुए विकारों, अशुद्धियों एवं विषैले तत्वों को दूर करके शरीर को भीतर से स्वच्छ करती हैं।
2- ये क्रियाएँ योगी को अपने शरीर, मस्तिष्क एवं चेतना पर पूर्ण नियंत्रण की शक्ति देती हैं।
3- शोधन क्रियाएं मनुष्य को प्रत्येक स्तर पर शक्तिशाली बनाती हैं एवं रोगों से दूर रखती हैं।
4- जब शरीर में अत्यधिक विकार हो अथवा शरीर में वात, पित्त तथा कफ का असंतुलन हो, तो प्राणायाम और योगासन से पूर्व षट्कर्म करके शरीर को शुद्ध करना चाहिए। तभी आसनों और प्राणायामों का पूरा लाभ मिलता है।
संक्षेप में, षट्कर्म द्वारा संपूर्ण शरीर की शुद्धि होती है और व्यक्ति निरोग रहता है। प्राकृतिक चिकित्सा में नेति को जल नेती और सूत्र (या रबर) नेती के रूप में, धौति को जल धौति या कुंजल के रूप में तथा वस्ति को एनिमा के रूप में अपनाया गया है। शेष तीन क्रियाओं का अभ्यास उनके मूल रूप में ही किया जाता है। इनमें से एनिमा और कुंजल की चर्चा हम इस लेखमाला में पहले विस्तार से कर चुके हैं। शेष चारों क्रियाओं की चर्चा आगे की जाएगी।
इन षट्कर्मों के अतिरिक्त हठयोग की एक क्रिया और है, जिसका प्रयोग प्राकृतिक चिकित्सक विशेष परिस्थितियों में करते हैं। इसका नाम है- शंख प्रक्षालन। इसमें शरीर को जल द्वारा उसी तरह शुद्ध किया जाता है जैसे किसी शंख में पानी डालकर उसे धोते हैं। इसकी विस्तृत चर्चा हम आगे किसी कड़ी में करेंगे।

— डॉ. विजय कुमार सिंघल

डॉ. विजय कुमार सिंघल

नाम - डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’ जन्म तिथि - 27 अक्तूबर, 1959 जन्म स्थान - गाँव - दघेंटा, विकास खंड - बल्देव, जिला - मथुरा (उ.प्र.) पिता - स्व. श्री छेदा लाल अग्रवाल माता - स्व. श्रीमती शीला देवी पितामह - स्व. श्री चिन्तामणि जी सिंघल ज्येष्ठ पितामह - स्व. स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी महाराज शिक्षा - एम.स्टेट., एम.फिल. (कम्प्यूटर विज्ञान), सीएआईआईबी पुरस्कार - जापान के एक सरकारी संस्थान द्वारा कम्प्यूटरीकरण विषय पर आयोजित विश्व-स्तरीय निबंध प्रतियोगिता में विजयी होने पर पुरस्कार ग्रहण करने हेतु जापान यात्रा, जहाँ गोल्ड कप द्वारा सम्मानित। इसके अतिरिक्त अनेक निबंध प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत। आजीविका - इलाहाबाद बैंक, डीआरएस, मंडलीय कार्यालय, लखनऊ में मुख्य प्रबंधक (सूचना प्रौद्योगिकी) के पद से अवकाशप्राप्त। लेखन - कम्प्यूटर से सम्बंधित विषयों पर 80 पुस्तकें लिखित, जिनमें से 75 प्रकाशित। अन्य प्रकाशित पुस्तकें- वैदिक गीता, सरस भजन संग्रह, स्वास्थ्य रहस्य। अनेक लेख, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य, कार्टून आदि यत्र-तत्र प्रकाशित। महाभारत पर आधारित लघु उपन्यास ‘शान्तिदूत’ वेबसाइट पर प्रकाशित। आत्मकथा - प्रथम भाग (मुर्गे की तीसरी टाँग), द्वितीय भाग (दो नम्बर का आदमी) एवं तृतीय भाग (एक नजर पीछे की ओर) प्रकाशित। आत्मकथा का चतुर्थ भाग (महाशून्य की ओर) प्रकाशनाधीन। प्रकाशन- वेब पत्रिका ‘जय विजय’ मासिक का नियमित सम्पादन एवं प्रकाशन, वेबसाइट- www.jayvijay.co, ई-मेल: jayvijaymail@gmail.com, प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य सम्पर्क सूत्र - 15, सरयू विहार फेज 2, निकट बसन्त विहार, कमला नगर, आगरा-282005 (उप्र), मो. 9919997596, ई-मेल- vijayks@rediffmail.com, vijaysinghal27@gmail.com