धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

कृष्ण कृपा शब्द की परिभाषा है

कुछ लोगों को लगता है इस कलयुग में ईश्वर की बातें करना, यकीन करना या साक्षात्कार की आस रखना गलत है। तो फिर हमनें हर गली हर चौराहे पर मंदिर क्यूँ खड़े किए है, घरों में भी छोटे से मंदिर में ईश्वर की स्थापना करते सुबह शाम प्रार्थना करते सर झुकते है। बिना श्रद्धा के तो सर नहीं झुकाते, तो अगर श्रद्धा है तब तो ईश्वर पर यकीन भी होना चाहिए। भले कलयुग में कृष्ण प्रत्यक्ष रुप से न दिखते हो पर हमारी करुणा का प्रतिसाद देते अप्रत्यक्ष रूप से  जरूर अपने अस्तित्व का प्रमाण देते है। कृष्ण नाम ही कृपा की परिभाषा सा लगता है, कृष्ण की भक्ति बहुत सरल और सहज है। उठते-बैठते कृष्ण नाम का सुमिरन काफ़ी है।
कृष्ण को पाना आसान है, सिर्फ़ हमारी भक्ति में इतनी प्रचंडता और प्रबलता होनी चाहिए कि हमारी पुकार पर कृष्ण मजबूर होकर नंगे पाँव दौड़े चले आए, और यकीन मानों आएंगे भक्ति में शक्ति होनी चाहिए बस।
अपनी मौजूदगी और अपनी कृपा के बहुत से उदाहरण दिए है कृष्ण ने। विदुर पर कृपा, द्रौपदी को चीर पूरना और महाभारत के युद्ध में अर्जुन को उनके विराट स्वरूप का साक्षात्कार सबसे बड़ा प्रमाण है। हम सोचते है की क्या इस कलयुग में संभव है कृष्ण का साक्षात्कार? तो क्यूँ नहीं संभव,
अगर नीयत साफ़ हो, पाने की चाह हो और पुकार में करुणा और प्रचंडता हो तो आज भी कृष्ण दौड़े चले आएंगे। पर कृष्ण यूँहीं नहीं मिलते, कृष्ण को झुकाना पड़ता है जिसका बेनमून उदाहरण है
कृष्ण के जीवन से जुड़ी एक महत्वपूर्ण शख़्सीयत रुक्मिणी। रुक्मिणी को कृष्ण का जो प्रमाण मिला वो अनन्य है। जब रुक्मिणी विवाह योग्य हो गई, तो उनके पिता भीष्मक को उसके विवाह की चिंता हुई। रुक्मिणी के पास जो लोग आते थे, वे श्रीकृष्ण की प्रशंसा किया करते थे। वे रुक्मिणी से कहा करते थे, श्रीकृष्ण अलौकिक पुरुष हैं, उनकी बाँसुरी में वो मिठास है की लोग मंत्र मुग्ध हो जाते है। समस्त विश्व में उनके जैसा अन्य कोई पुरुष नहीं है।
ये सारी बातें सुन-सुनकर भगवान श्रीकृष्ण के गुणों और उनकी सुंदरता पर मुग्ध होकर रुक्मिणि मन ही मन कृष्ण को चाहने लगी और निश्चय किया कि वह श्रीकृष्ण को छोड़कर किसी ओर को पति के रूप में कभी स्वीकार नहीं करेगी। रुक्मिणी ने अपना प्रेम प्रकट करने के लिए एक ब्राह्मण को द्वारिका श्रीकृष्ण के पास भेजा। शायद ये विश्व का पहला प्रेम संदेश होगा, रुक्मिणी की हिम्मत को दंडवत प्रणाम, एक लड़की होकर प्रणय निवेदन वो भी उस ज़माने में …उसने श्रीकृष्ण के पास जो संदेश भेजा वो ऐसा था,
हे नंद-नंदन, हे माधव मैंने आपको ही पति के रूप में मान लिया है। मैं आपको छोड़कर किसी अन्य पुरुष के साथ विवाह नहीं कर सकती। मेरे पिता मेरी इच्छा के विरुद्ध मेरा विवाह शिशुपाल के साथ करना चाहते है। विवाह की तिथि भी निश्चित हो गई। मेरे कुल की रीति है कि विवाह के पूर्व होने वाली वधु को नगर के बाहर गिरिजा का दर्शन करने के लिए जाना पड़ता है। मैं भी विवाह के वस्त्रों में सज-धज कर दर्शन करने के लिए गिरिजा के मंदिर में जाऊंगी। मैं चाहती हूँ आप गिरिजा मंदिर में पहुंचकर मुझे पत्नी रूप में स्वीकार करें। यदि आप नहीं पहुंचेंगे तो मैं आप अपने प्राणों का परित्याग कर दूँगी, और मेरे मृत्यु का कारण आप कहलाओगे।
बेशक उस ज़माने में भी लड़कियाँ  अपना वर चुनने का अधिकार और हिम्मत रखती थी, बशर्ते पुरुष कृष्ण के जैसा बलवान, शौर्यवान और अपना उत्तरदायित्व निभाने वाला वीर हो। जिनकी श्रेष्ठता और वीरता पर यकीन हो।
रुक्मिणी का संदेश पाकर भगवान श्रीकृष्ण रथ पर सवार होकर शीघ्र ही कुण्डिनपुर की ओर चल पड़े थे। सोचिए कितना आक्रमक इकरार होगा रुक्मिणी का। मीरा की तरह कृष्ण का इंतज़ार मत कीजिए और राधा की तरह खुल्ला मत छोड़िए। रुक्मिणी की तरह मजबूर करो, झुकाओ तभी वो आएंगे। कहने का तात्पर्य है की रुक्मिणी ने इतनी शिद्दत से संदेश भेजकर कृष्ण को मजबूर किया, इतना मोहांध होते प्रेम प्रकट किया की कृष्ण को आना पड़ा। तो बस अगर कृष्ण को पाना है तो अपनी करुणा, अपनी भक्ति की उग्रता और कृष्ण के प्रति मोह को इतना जगाओ की कृष्ण को आपकी पुकार सुनकर हर हाल में आना पड़े। भले प्रकृति के चंचल हो कृष्ण, पर भाव के भूखे हल्की सी करुणा पर पिघल जाते है। कलयुग में भी बहुत ही सरलता से लभ्य है कृष्ण का साक्षात्कार।
— भावना ठाकर ‘भावु’

*भावना ठाकर

बेंगलोर