कविता

देखो मेरे इस भारत को

देखो मेरे इस भारत को
नेताओं के इस भारत को
नियमों की जहां भरमार है
टुकड़े हो गए जिसके अपार है
उपदेशों की यहाँ कमी ही नही
बात मन लेकिन जमी ही नही
कुर्शी हो या मेज की बात जहाँ
हाथ जोड़े लोग फिरते हैं वहाँ
अपनेपन की ये बात करें जब
स्वार्थ छिपाते फिरते ये तब
खाते घर का ये गाते परका
बस राष्ट्रधर्म है यही जिनका
देश का भविष्य भविष्य कहां
वर्तमान सुधरता नही है जहां
करुणा दया माया ममता सब
इन पर ही हो चाहते हैं रब
देश मेरा ये वो देश नही है
अपनी चलती तो सब सही है
किस को कहूं और क्या मै कहूं
विद्रोह का दिखता सबमें लहू
ये भक्त बने या बने यें लुटेरे
सब ही चाहे जनता धन तेरे
जिसने दी है खुली ये हवा
उसका यहाँ नामोंनिशां है कहां
अनिल की दिशा बदल ही गयी
सोने की चिड़िया कहां है गयी

डॉ. अनिल कुमार

सहायक आचार्य साहित्य विभाग एवं समन्वयक मुक्त स्वाध्यायपीठ, केन्द्रीय संस्कृत विश्वद्यालय श्रीरघुनाथ कीर्ति परिसर, देवप्रयाग, उत्तराखण्ड मो.न. 9968115307