मुक्तक/दोहा

मुक्तक

अपनों की रूसवाई से डर, खुद को भूल गया हूं,
सबको खुश करने की चाह, बीच में झूल गया हूं।
अपने जो मुझको समझ सके ना, कैसे अपने हैं,
सबको मैं ही अपना समझूं, सोच सोच टूट गया है।

कब तक सच पर झूठ नकाब लगाये रखूं,
कब तक कड़वे को मीठा स्वाद बतायें रखूं?
कभी कभी तो वितृष्णा होती है खुद से ही,
कब तक अन्धा नाम नयनसुख बताये रखूं?

जब तक हमने सबको चाहा, हम अच्छे हैं,
जब तक धन दौलत प्यार लुटाया, अच्छे हैं।
खुद कष्टों में रहकर, जिनको सुख में पाला,
मेरे सुख पर जलन ईर्ष्या,कहते वो अच्छे हैं।

— अ कीर्ति वर्द्धन