सामाजिक

अन्न की बर्बादी और हम

ये कैसा प्रश्न है जिसके लिए हमें सिफारिश करना पड़ रहा, अपील,आवाहन करना पड़ रहा है। जिस अन्न का महत्व तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री को एक समय उपवास की अपील तक हम नहीं समझ पा रहे हैं या समझने की जहमत तक नहीं उठाना चाहते। मगर अफसोस यह भी है कि अन्न की बर्बादी सिर्फ धनाढ्य या साधन संपन्न ही नहीं कर रहा, मध्यम वर्गीय भी खूब योगदान दे रहे हैं।
ऐसा करने में सात्विक, धार्मिक विचारधारा के लोग भी मांँ अन्नपूर्णा का अपमान करते देखकर भी आँखें फेर कर आगे बढ़ जाते हैं। हर छोटे बड़े उत्सव आयोजन में अन्न की बर्बादी जैसे प्रचलन में आ गई हो।
मान्यता तो यहां तक भी सुनने को मिलती है कि जितना अन्न जो बर्बाद करता है, उसे उतने अन्न के लिए किसी न किसी रूप में भूखा रहना पड़ता है। उसके लिए हम तर्क, कुतर्क भी कर सकते हैं। क्योंकि बहुत बार ऐसा भी होता है कि हमें भोजन की थाली सामने होने पर भी किसी न किसी परिस्थिति/समयाभाव या अन्य कारणों से खाने का मौका नहीं मिलता या नहीं का पाते। इसके पीछे माँ अन्नपूर्णा का कुपित होना ही है। एक एक दाने की बरबादी का हिसाब हमें हर हाल में स्वयं चुकाना पड़ता है। इसे रूढ़िवादी सोच के नाम पर पीठ थपथपाने की आदत हमें भारी पड़ने वाली है। भले ही उसका स्वरूप कुछ भी हो,मगर हम तो चाँद पर पहुंच गए हैं। हमें ऐसी बेकार की बातों में नहीं उलझना है। यह सोच हमें आज नहीं तो कल, हमें नहीं तो हमारी आने वाली पीढ़ियों से सवाल ही नहीं करेगी, ज़बाब भी माँगेगी और दंड भी।
मगर इससे पहले हम खुद में झाँककर देखें तो हम अपनी थालियों में भी अक्सर भोजन छोड़ देते हैं भले ही वह कुछ कौर, एक टुकड़ा ही हो।जो  बाद में कुछ तो नालियों में, तो कुछ कूड़े में जाता है। रसोई में भी आवश्यकता से अधिक पका भोजन बहुत कम उपयोग में लाने की आदत होती जा रही है। गाँवो में तो चलो,जानवर , कुत्ते, बिल्ली, पक्षी उसका उपयोग कर लेते हैं, मगर शहरों में तो आवारा पशु , कुत्ते कुछ ही अंश पाते हैं।कारण कि हम फालतू  भोजन कूड़े दान या फिर कूड़ों में फेंककर इति श्री कर लेते हैं।
विडंबना देखिए कि यदि कोई गरीब, असहाय या भिखारी माँगे भी तो हम उसे एक समय का भोजन तक नहीं देते या देना ही नहीं चाहते या उसे दुत्कार देते हैं।
बढ़ती आधुनिकता , सफर संस्कृति के कारण अन्नपूर्णा का खुलकर अपमान आम बात है। क्योंकि बहुत व्यंजन के कारण लोग थोड़ा थोड़ा ही सही सबकुछ ले लेते हैं और फिर छोड़ देते हैं। लगभग हर आयोजन में अन्न की बर्बादी पर कुछ कहना बेकार है।
अहम बात यह है कि उपयोग भर के भोजन को पकाने का प्रयास हो।अन्न के पुर्न उपयोग के बारे में भी सोच विचार हो। अनुपयोगी भोजन गरीबों, बेसहारा लोगों में बँटवाने, अनाथालयों, वृद्धाश्रमों में पहुँचाने, स्वयंसेवी संस्थाओं को अवगत कराने, उपलब्ध कराने,  जानवरों को खाने के लिए साफ स्थान पर डालने की रुपरेखा बनाने की जरूरत है। जिससे अन्न की बरबादी तो रुकेगी ही, किसी का पेट एक समय ही सही, मगर भरेगा। जिसके बदले में आपको , हमको न खरीदी जा सकने वाली दुआएं बिना माँगे मिलेंगी।
इसकी शुरुआत खुद से परिवार से शुरू किया जाना चाहिए। इसके लिए हम सबको, एक एक व्यक्ति को दृढ़ता से संकल्प लेना होगा।इस काम को अमली जामा पहनाने में माँ अन्नपूर्णा की प्रतिमूर्ति हमारी माँ, बहन, बेटियां बेहतर ढंग से योगदान कर सकती हैं। अपने और अपने परिवार के बीच अन्न की महत्ता को रेखांकित करने ही नहीं क्रियान्वित करने का संकल्प आज ही लें। क्योंकि सबको पता है कि जाने कितनों को दिन रात के बीच एक समय का भोजन भी नहीं मिल पाता है या बड़ी मुश्किल से मिल पाता हैऔर हम बड़ी बेशर्मी से अन्न को फेंक कर संतुष्ट हो जाते हैं। यदि हम अन्न की बर्बादी रोकने की दिशा में थोड़ा सा भी सचेत हो जाएं तो विश्वास मानिए देश दुनिया का एक भी इंसान भूखे पेट नहीं सोचेगा या भूख से नहीं मरेगा।
क्या हम सभी सामाजिक प्राणी होने के नाते इतना भी विचार करने की जहमत नहीं उठा सकते। यदि आप वास्तव में माँ अन्नपूर्णा का आदर करते हैं, उन्हें मानते हैं तो कुछ कीजिए न कीजिए , मगर एक बार यह जरुर सोचिए कि एक दिन में, एक माह में,एक साल में या अपने पूरे जीवन में आपके द्वारा बर्बाद किए गए अन्न से कितने लोगों को एक समय का भोजन नसीब हो सकता है और आपके अनायास किए गए काम से कितना पुण्य और आत्म संतुष्टि आपको मिल सकती है।
माँ अन्नपूर्णा को नमन।

*सुधीर श्रीवास्तव

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