कविता

एक बीज

मैं अपनी बगिया में बहुत खुश था
अपनों के संग मदमस्त था
एक दिन तेज हवा का एक झोंका आया
और मैं उड़कर एक पत्थर से जा टकराया
नदी में बहता चला जा रहा था
एक नये और अनजान सफर की ओर बढ़ा जा रहा था
मन मेरा डरा हुआ था
कहाँ जाना है कुछ पता नहीं था
पानी के थपेड़े खाते हुए
सूरज की प्रखर धूप सहते हुए
मुझे एक किनारा मिला
एक विशाल वृक्ष का साया मिला
उसके वात्सल्य की छाँव में
मेरा मन खिल उठा
मिट्टी के स्नेहिल स्पर्श से
मैं उधर ही अंकुरित हो उठा
सूरज की किरणों ने मुझे सहलाया
शीतल मंद बयार ने मुझे दुलराया
धीरे-धीरे मैं अब पल्लवित हो चला था
अपने नये साथियों के संसर्ग में
परस्पर अनुग की अनुभूति से खिल उठा था,
मेरी विशाल शाखाओं पर अब
फल ओर फूल खिल आया था
अपने चिस्तृत परिवार को देख
मेरा रोम रोम हर्षाया था
अब मैं पूरी शिद्दत से मानवता का कर्ज चुकाऊँगा
थके पथिकों को आश्रय देकर
भाव विह्वल हो जाऊँगा।
लेने देने की बात न कर
देने का निश्चय करना है
स्नेह प्रेम वात्सल्य अनुराग का भाव सभी में भरना है
— सुधा अग्रवाल

सुधा अग्रवाल

गृहिणी, पलावा, मुम्बई