कविता

मकड़जाल

अजीब सी दुविधा में हूँ
ये कैसे मकड़जाल में फंस गया हूं,
जिसमें फँसने का तो
कोई औचित्य ही न था
फिर भी फंसकर रह गया हूँ
या यूं कहूँ खुद ही आकर फँस गया हूँ।
मगर अब जब निकलना चाहता हूँ तब
चाहकर भी निकल नहीं पा रहा हूँ,
जाल में जो हमसे पहले
किसी दुर्घटना वश आकर फँस गए थे
वे भी अब मुस्करा रहे हैं,
जाल में फँसकर भी
आजाद नहीं होना चाह रहे हैं
उल्टे मेरे पैरों में बेड़ियां डाल इतरा रहे हैं।
वो अब मुझे जाने नहीं दे रहे हैं
अपनी जिद भरे सद्भाव सम्मान से
भावुकता और अश्रुपूरित आँखो से
मुख्य द्वार पर अवरोध डाल
जैसे खुद शहंशाह हो रहे हैं
मुझे अपने साथ रखना चाहते हैं,
इसीलिए मेरे पैरों में शिला बाँध रहे हैं।

 

*सुधीर श्रीवास्तव

शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल, बड़गाँव, गोण्डा, उ.प्र.,271002 व्हाट्सएप मो.-8115285921