लघुकथा

तृप्ति

अनुराधा ने देखा क्लास रूम में भोले-भाले बच्चें सहमे-सहमे बैठे हैं। साफ-सुथरा यूनिफार्म पहने। उसके आते ही सबने खड़े होकर अभिवादन किया। जब बैठने के लिए कहा गया, चुपचाप बैठ गए। अनुशासित, बड़ों-सा सधा हुआ व्यवहार। न कोई ऊर्जा, न उल्लास। जैसे जबरदस्ती दिलो-दिमाग पर किसी ने बोझा लाद दिया हो। अनुराधा मन ही मन सोच रही थी, बच्चें खिलखिलाते अच्छे लगते हैं। यह तनाव, यह शांति कैसी?
अनुराधा का व्यक्तित्व सादगीपूर्ण, हसमुख, प्रसन्नचित्त था। हंसते हुए उसने अपने विद्यार्थियों से दोस्ती का निश्चल रिश्ता बनाया। महकती मुस्कान और मासुम चहक से आह्लादित हुआ वातावरण। बच्चें खुलकर बातें करने लगे। नटखट पवन हिलोरे लेने लगी। कथा, कहानियां, कविताएं, इतिहास, भूगोल खेलते खेलते अंकों से भी प्यार हो गया। पढ़ना-लिखना अब मजेदार हो गया और अनुराधा को ज्ञान-दान करते मिल रही थी संतुष्टि और तृप्ति।

*चंचल जैन

मुलुंड,मुंबई ४०००७८