सामाजिक

निर्भयता

बिना भय के हम जिस भावना पर सबसे अधिक निर्भर महसूस करते हैं, वह है निर्भयता। भयमुक्त, शंकामुक्त होकर निर्भय होना ही निर्भयता का कारक है।
सामान्य तौर पर भी यदि हम अपने जीवन के विभिन्न पक्षों पर दृष्टि डालेंगे, तो हम देखते हैं कि हम चाहे जितने निर्भयी हों, एक पल के लिए ही सही, मगर भय का आभास होता ही है, यह अलग बात है कि हम अपनी निर्भयता से उस भय को दूर भगाने में सफल हो जाते हैं। यदि हम उस भय के वशीभूत होकर उसको छोड़ना ही चाहें तो हम असफल हो जायेंगे, हार जायेंगे, अपना आत्मविश्वास खो बैठेंगे और बहुत कुछ खो बैठेंगे।
भय से कब तक भय खाइएगा
भय संग कब तक सहज रह पाइएगा।
भय को गले से लगाए
कब तक ढोते रह पाइएगा,
भय की गठ्ठर बांधे रहकर
कब तक जी पाइएगा?
अच्छा है हौसला कीजिए
निर्भयता से रिश्ता जोड़िए,
भय को नोचकर फेंक दीजिये
परिवर्तन आपको साफ दिख जायेगा
जीवन जीने का नजरिया बदल जायेगा।
निर्भयता अथवा भय से संबद्ध रहने के लिए हमें अपनी सोच पर विचार करने की जरुरत है।अपने नजरिए को व्यवहारिक दृष्टिकोण से विस्तारित करने की जरुरत है। इसके लिए हमें अपने मन: मस्तिष्क में सकारात्मक भाव का समावेशी परिवेश को स्थापित करना आवश्यक है। तभी निर्भयता का वास्तविक परिणाम रेखांकित हो सकेगा।

*सुधीर श्रीवास्तव

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