गीत/नवगीत

भारत का रूप सजाते हैं

सूरज किरणों का ताज धरे, तारे मोती बन जाते हैं
अपनी दौलत देकर के सब, भारत का रूप सजाते हैं।

बरखा बूँदें बादल बनकर, मल्हारी गीत सुनाती हैं
कोयल बहार के मौसम में, कुहूक मुरली बजाती है
‘शरद’  चाँदनी रातों में, कविता के दीप जलाता है
हिम-पुष्पों की वर्षा कर, गजरा हेमंत लगाता है
शिशिर प्रभात की बेला में,भौरे नर्तन कर गाते हैं
अपनी दौलत देकर के सब,भारत का रूप सजाते हैं।1।

सरसों के फूलों की लड़ियाँ, सोने का हार सजाती है
धानी चूनर ओढ़े धरती,  घूंघट में रूप छिपाती है
केसर चमकीली आभा से, गालों में घुल-गुल जाता है
अरविंद निकलकर तालों से, पग-तल में बिछ जाता है
नज़र लगे ना दुनिया की, बादल काजल हो जाते हैं
अपनी दौलत देकर के सब, भारत का रूप सजाते हैं।2।

रहे तेरी छबि सदा यूँ ही, ये वतन मेरा आबाद रहे
युग-सदी-कल्प-मन्वंतर क्या, आजीवन ये शादाब रहे
फूलों-सा महके तन तेरा, कलियों-सी बस मुस्कान रहे
दुनिया में फिर कुछ हो ना हो, बस मेरा हिन्दुस्तान रहे
तन-मन-धन से जन-गण-मन के, कोटिक ये प्राण मनाते हैं
अपनी दौलत देकर के सब, भारत का रूप सजाते हैं।3।

— शरद सुनेरी