कहानी

कहानी – घुसपैठिए

राघव और उसका साथी वैभव दिन ढलते ही टैªकिंग के अपने जुनून के कारण डायनासर झील को निकले थे। वे नाले के साथ साथ आगे बढ़ रहे थे। पगडंडी दूर तक धागे की तरह नज़र आ रही थी। नाले में चहँु ओर टूटे हुए पत्थरों के ढेर थे। ऐसा लगता है कि जैसे यहाँ कोई बाँध बनाने की तैयारी हो रही है। आगे तंग घाटी होने की वजह से जैसे बेबस हो गए थे। वे आगे बढ़ने का साहस नहीं कर पा रहे थे। दोनों वहीं पगडंडी के इर्द गिर्द के पत्थरों पर बैठ गए। तभी उनकी ओर झाड़ियों और पेड़ों के अँधेरे को पार करता हुआ एक अधेड़ देहाती बड़ा सा बोरू उठाए सामने आ गया। दोनो उठ खड़े हुए। ‘‘नमस्ते चाचा, हमें डायनासर झील का रास्ता पता करना हैं।’’
अधेड़ अपना बोरू रास्ते पर रखते बोला, ‘‘अरे यह कोई टैम है झील तक जाने का। पीछे गाँव में किसी ने तुम्हंे बताया नहीं। कौन हो तुम?’’
दोनो ने अपना परिचय दिया। अधेड़ ने जब सारी बात समझ ली तो बोला, ‘‘वैसे तुम नीचे दड़बों में रुक लेते लो ठीक था, वहाँ तुम्हें साथ भी मिल जाना था और खाने पीने को भी। अच्छा आगे भगतू का छप्पर है वह तो वहीं होगा।’’
दोनो दोस्त जैसे ईश्वर का धन्यवाद करने लगे। उनके थकावट से भरे चेहरों पर खुशी की छोटी बूँदें उभरने लगी। राघव बोला, ‘‘यह भगतू कौन है?’’
‘‘अरे वह वक्त का मारा बंदा है। उसने अपनी पत्नी के शव की तलाश में पूरा नाला ही खोद डाला है, पगला गया है वह, अभी भी उसे चैन नहीं! अपनी पत्नी के शव की तलाश में उसने हर छोटा बड़ा पत्थर नहीं छोड़ा है। बड़ा दुखी और सनकी आदमी है।
‘‘ऐसा क्यों हुआ चाचा?’’ राघव बोला।
‘‘तुमने देखा नहीं नाले में चहुँ ओर बड़े-बड़े पत्थर टूटे हैं। पाँच वर्ष पहले ऊपर पहाड़ों में बादल फटा और ये पत्थर बादल फटने से बह कर आए थे । भगतू सावन भादों में भैंसे लेकर यहाँ बसने आता था तब भगतू अपनी पत्नी संग दड़बे में अपनी भैंसे लेकर रह रहा था। बिलकुल नाले के साथ ही उसका दड़बा था, भगतू नीचे कस्बे में घी छोड़ने गया था और बस भगतू का दड़बा भी बह गया। भैंसे नाले से दूर थी पर उसकी पत्नी बह गई। उसका बेटा तो उस वक्त नीचे गाँव में था अपनी दादी संग। हम सब गाँव वालों ने उसकी पत्नी के शव को बहुत ढूँढा, पर वह नहीं मिला। बस अपनी पत्नी के शव के बिना वह पगला सा गया था। वह हर छोटे बड़े पत्थर को तोड़कर अब तक पत्नी के शव को ढूँढ रहा है।’’
राघव और वैभव के चेहरों पर दुख के भाव उभर आए थे। बूढ़ा लगभग उठते हुए बोला, ‘‘मैं तो कहता हूँ तुम वापिस दड़बों की ओर चल पड़ो, वहाँ तुम रात भर ठहर लेना। डायनासर तो हम भी जाते हैं भादों में, मेला लगता है वहाँ, तब आना था, अभी तो वहाँ का रास्ता भी बह गया होगा। अच्छा चलो नीचे।’’
राघव वैभव की ओर देखते ही झट से बोला, ‘‘नहीं हम उस भगतू चाचा के छप्पर के आस पास अपना टैंट लगा लेंगे, हमारे पास कैंपिग का सारा सामान है। आपका धन्यवाद।’’ दोनों दोस्त आगे निकल गए।
कुछ आगे बढ़ने पर फिर नाले पर लकड़ी के तनों का बना पुल नज़र आया। एक ओर एक स्लेटों का बना छप्पर था। छप्पर से मामूली सा धुआँ उठता जा रहा था। वह धीरे से पुल पार करके छप्पर के बाहर पहुँचे। राघव ने एक दो बार आवाज़ंे लगाईं पर कोई प्रतिक्रीया नहीं हुई। वे वापिस मुड़ने को हुए।
‘‘आ जाओ अंदर, यात्री।’’
धीरे से दरवाजे़ को खोलते हुए वे अंदर दाखिल होने लगे। सामने एक बूढ़ा रस्सी बुनता हुआ बैठा हुआ था, उसने बुन रही रस्सी का एक कोना अपने पैरों में फँसाया था। ‘‘अच्छा यात्री कौन हो तुम, इस एकांत बीहड़ में कहाँ जा रहे हैं? तुम्हारी क्या सेवा करें, क्या नाम है तुम्हारा?’’
‘‘मैं राघव हूँ बाबा जी और यह मेरा साथी वैभव, हम तो यह पूछना चाहते थे कि आगे भी कोई रहता है या फिर बस यहीं तक।’’
बूढ़ा हँसने लगा, ‘‘छोटे भाइयों, अब इस बूढ़े भगतू के इलावा तुम्हें आगे कोई बूढ़ा नहीं मिलेगा, हाँ तंग घाटी के दो सिरे आपस में बतियाते मिल जाएँगे और यह नाला ऊपर पहाड़ से झरना बन फूटेगा, पर बड़ी डरावनी जगह है, भालू भी होगा वहाँ, तुम यहाँ तक कैसे आ गए?’’
राघव को वह बूढ़ा कोई पहाड़ी जादूगर नज़र आ रहा था। वह उससे डर रहा था, उसकी सफे़द दाड़ी और सिर पर बँधा परना, पहाड़ी कोट डाले वह रहस्यमयी बूढ़ा नज़र आ रहा था। वहाँ एक कोने में खूब आग जल रही थी। जहाँ राघव आग की ओर देख रहा था। वैभव की नज़रें चोरी छिपे बूढ़े के कमरे में रखी चीज़ों की ओर जा रही थी। एक ओर छोटी कुल्हाड़ी, दराट रखा था। मिट्टी के तेल से चलने वाला दीया, पत्थरों को सटा कर बनाया उसका बिस्तरा और मात्र दो चार बर्तन रखे थे वहाँ। कमरे के एक कोने पर कई बोरू रखे थे। पत्थर तोड़ने के औजार एक कोने मंे रखे थे।
‘‘वैसे आप यहाँ क्या करते हैं, पशु तो यहाँ है नहीं।’’
बूढ़ा मुस्कुराया, ‘‘अब इस बीहड़ जंगल में मैं क्या करूँगा, बस कभी जड़ी-बूटियाँ इकट्ठी करता हूँ, और ज्यादा समय पत्थर तोड़ता हू। वैसे यहाँ और क्या मिलेगा?’’
अच्छा तभी सारे नाले में टूटे हुए पत्थर पड़े हैं वे सब आप ने ही तोड़े होंगे।
‘‘बस बच्चा ऊपर वाले के आदेश से पत्थर तो तोड़ने ही पडें़गे। आग सेंको।’’
‘‘पर बाबा हम तो डरे हैं, तभी आपके डेरे में आ गए। हमें आगे जाने में डर लग रहा है, हमारी यात्रा अब शायद यही तक ही है, हमारा मन अब हमें अब दूसरी धारा में बहाने लग पड़ा है, कभी वह हमें कुछ नया और नया पाने व देखने के लिए यहाँ तक ले आया और अब उसने अपना रुख बदल लिया।’’
‘‘बच्चा मन का कोई दोष नहीं, यह तो हमारे अनुभवों का सारथी है, हमारे अनुभवों से उसका रथ दौड़ता हैं हमारे अनुभव उसकी लगाम को कस भी सकते हैं, और उसे खुला दौड़ने को भी ललचा सकते हैं। वैसे तुम इन नज़ारों को देखने के लिए दौड़ते आए हो, तो फिर देखो इन्हें, अब डर किस चीज का है। वैसे तो तुम्हारे मन ने चलने से पहले तुम्हें कई सपने बुनने को कहा होगा, और तुम उसको अपना सारथी बनाकर दौड़ पडे़ इस ओर। क्यों ठीक कहता हूँ न मैं।’’
राघव ने ‘हँू’ में सिर हिलाया, ‘‘ बाबा आप। ठीक कहते हैं, हमारे शौक हमें कभी चैन से नहीं बैठने देते हैं जब कभी काम से छुट्टी मिलती है और फिर जाने की इच्छा जाग जाती है और फिर हम दौड़ पड़ते है पहाड़ों की यात्रा पर।
‘‘बच्चा, यह प्रकृति तुम्हें जितनी संुदर व दरियादिल नज़र आती है उतनी है नहीं, इसकी अपनी धुन है और अपनी अक्कड़ है। तुम इसे पसंद करते हो, पर इसकी पसंद को कोई समझ नहीं पाया। वास्तव में हम प्रकृति की दुनिया में घुसपैठ करके सब कुछ चुरा रहे हैं, हम अपने लिए हर वे चीज उड़ा रहे हैं, जो उसने अपने जैसे कई प्रकृति पर निर्भर भक्तों के लिए बनाई हैं। तुम लोग आँखों और मन के सुख के लिए यात्रा पर निकले हो, वैसे तुम बड़े बहादुर भी लग रहे हो जो यहाँ अँधेरे के साम्राज्य की ओर खिंचे चले आए। यहाँ तो सिर्फ़ देवदार के सख्त वृक्षों का शोर है, मुझे तो कभी लगता है ये पेड़ किसी देवता के शिष्य है जिन्हें डर की अदृश्य परिभाषा का ज्ञान नहीं।

‘‘ये पहाड़, ये नज़ारे कभी किसी से घुलते मिलते नहीं, इनकी अपनी दुनिया है, हम तो बस हम इनकी दुनिया में दखल देते हैं, हम सोचते है कि यह प्रकृति, ये पहाड़ हमसे बड़ी दरियादिली दिखा रहे हैं और हमसे बड़ा प्यार करते हैं तो ये बस हमारा भ्रम है, असल में हम इनके प्रेम में अंधे हो चुके होते है ये न तो हमें बुलाते है और न हमंे चाहते हैं। बस बच्चा घुसपैठिओं से अपनी इन वादियों को बचाना होगा, ये बाज की तरह आएँगे और हमारी संस्कृति के नन्हें पंखेरूओं को धीरे धीरे मार देंगे और हमारा आसमान फिर सूना पड़ जाएगा। ’’
वैभव आग में हाथ सेंकते हँू…हूँ.. कर रहा था। राघव बूढे़ चाचा के चेहरे पर नाचती झुर्रियों को आसमान की ओर उछलती गेंद की तरह पकड़ रहा था।
‘‘बच्चा! तुम लोगों को हमारी ज़िंदगी भी पहाड़ सी सुंदर लगती है, पर तुम्हें पता नहीं शायद, अगर हम लोग यहाँ नहीं होते तो तुम भी न आते, प्रकृति और इन्सानों के मिलन से बने संगीत से सारे नज़ारे अच्छे लगते हैं। देखो तभी तो तुम मेरे डारे के पास खिंचे चले आए, वरना शायद इस तंग घाटी से वापिस लौट जाते। वैसे तुम लोग इसलिए भी आते होंगे कि तुम्हें हम दीन-हीन गरीब, अपने परिवेश और मिट्टी से जुडे़ लोगों को देखकर आनंद मिलता है। तुम्हें हमारे में छोटे- छोटे घर व धड़बे बडे़ सुंदर नज़र आते होंगे, अगर हम भी तुम्हारी तरह होते तो शायद तुम्हें मज़ा न आता।’’
‘‘वैसे सच कह रहे हो चाचा। हमें यही सब प्राकृतिक चीजें ही तो पसंद आती हैं या फिर बहुत अधिक मॉड्रन जैसे बडे- बडे़ मॉल, फलाईओवर।’’
‘‘अच्छा शहरों में होता है सब, वहाँ तो मिट्टी का कण भी पाँवों को छू नहीं सकता होगा।’’
बूढ़ा चाचा हँस दिया, ‘‘अरे भाई तुम्हारी दुनिया चाहे कैसी भी हो, यह हमारी दुनिया को अपने मशीनी पैरों से रोंदना चाहती है। वैसे एक बात बताऊँ तुम ने घूमने के लिए बिल्कुल गलत जगह चुन ली है, आगे ये घाटी इतनी तंग हो जाएगी कि कोई दोनों तरफ की धारों को एक हाथ से नाप ले, घने जंगल के सिवा वहाँ और कुछ भी नहीं, भालुओं का राज है वहाँ, मेरे जैसे कई लोगों को भागना पड़ा है वहाँ से, जबकि यह जंगल तो हमारा घर है। वैसे एक बात बताओ, हमारी तो यहाँ रहने की मजबूरी भी है और आदत भी और हमारा आसमान हमें सिर्फ़ घाटी के ऊपर सितारे दिखाता है, पर तुम लोग यहाँ क्यों आ गए? क्या तुम्हारा अपनी दुनिया में दिल नहीं लगता है?’’
‘‘अरे नहीं चाचा, यह हम नए किस्म के लोगों के शौक है। हमें नई जगहों की तलाश में निकलते हैं, इससे हमें आनंद आता है, हमारे साहस की परीक्षा होती है।’’
बूढ़ा हँस दिया, ‘‘वाह भाई! यह तो बड़ा अजीब शौक है, पर लगता है कि यह बेहलड़ों और पैसों वालों का शौक हो सकता है। पर एक बात पक्की है कि दुनिया बदल रही है पर न ही ये पहाड़ बदलना चाहते हैं और न घाटियाँ, पर जिस दिन ये भी बदल जाएँगी, तुम जैसे लोग भी यहाँ नहीं फटकेंगे। पर एक बात कहूँ बच्चा, मैं नहीं चाहता कि तुम लोग हमारे जीने का ढंग समझो और फिर उसे देख कर अपने आनंद का सामान बनाओ, पर हमारी ज़िंदगी को तुम जैसों की नज़र लग जाएगी और तुम्हारे साथ ही यहाँ आ जाएगा एक भूत, जो हमारे रहन सहन, संस्कृति और हमारी जड़ों को उखाड़ फेंकेगा।’’
बाबा गंभीर हो रहा था। वह फिर बोला, ‘‘इस दुनिया को खतरा न प्रकृति का है और न किसी और बात है। बस सबसे बड़ा खतरा दखल अंदाज़ी का है। तुमने देखा नहीं, जहाँ से तुमने पैदल यात्रा शुरू की है, उस गाँव का अब क्या हाल हो गया है! दिन रात वहाँ प्रदेशियों की गाड़ियाँ दौड़ी आती हैं और यहाँ के मौसम का सुकून पाने की चाहत में आस-पास के गाँवों में घुस आते हैं। उनकी देखा-देखी यहाँ के लोग भी नए रंग के सपने लेने लग पड़े है। वे उनके फेंके कुछ पैसों के लिए उनके सेवक बन गए, उनके साथ नशे भी करने लगे है वैसे सच बताऊँ तो मैं नहीं चाहता कि यहाँ बाहर के प्रदेशी आएँ उनके आने से यहाँ का तंत्र धीरे – धीरे बिगड़ जाएगा। लोगों को ऐसा लगने लगा कि जैसे वे पिछडे़ है, अस्थिर हैं, उनकी मानसिक स्थितरता तहस नहस होने लग पड़ी है। उनके सपनों ने बड़ा आकार लेने शुरू कर दिए हैं और सपनांे के पीछे दौड़ते हुए वे अपने रास्ते से भटक गए है।’’
‘‘बाबा! आप वैसे कह तो ठीक रहे हो पर दुनिया में बदलाव आ चुका है, अब यह तुम्हारा आसमान नहीं है, अब तुम्हारी आज़ादी छिन चुकी है, अभी यहाँ हम आए है, कल वहाँ हम जैसे कई आएँगे, हमारे पास जुनून है जो हमें नए साधनों से आया है। हमने तुम्हारी वह देवताओं वाली झील गूगल मैप में ढूँढ ली है।’’
बाबा उनकी ओर आँखें फाडे़ देख रहा था और बस तपाक से बोला, ‘‘अच्छा! यह सब तुम देख रहेे हो, तुम्हें पता है झील का भी।’’
राघव ने अपना मोबाइल निकाला, ‘‘अरे इसमें तो सिग्नल जरा भी नही है वरना हम चाचा आपको दिखाते कि हम डायनासर झील तक क्यों पहुँचना चाहते हैं?’’
‘‘अरे तुम गूगल फूगल को छोड़ो मैं तुम्हें सुबह रास्ता बता दूँगा, पर तुम लोगों के आने के बाद मैं चिंता में पड़ गया हूँ।’’
‘‘कैसी ंिचंता?’’ राघव तपाक से बोला।
‘‘अरे तुम लोगों को हमारे देवताओं की झील का पता है, कल को तुम यहाँ इस विशाल जंगल से कई रास्ते बना लेंगे तो फिर मेरी इस एकांत दुनिया का क्या होगा?’’
‘‘ बाबा आप खामखाह ही अपने लिए परेशान हो रहे हो, आप समय से पिछड़ कर अलग – थलग पड़े हो जबकि समय का सच तो यही है और हर तरफ तरक्की का डंका बज रहा है।’’
‘‘क्या कहते हो भाई? तरक्की का डंका! पर यह तरक्की कैसी होती है, मुझे डरा इसके बारे में तो बताओं, मैं तो तरक्की जानता भी नहीं, जब से होश सँभाला है, इन्हीं पहाड़ों, घाटियों, नालों और पत्थरों को देखता रहा हूँ। हाँ, इतना जानता हू कि नीचे कस्बे में तरक्की हो रही है। वहाँ लकड़ी के पुराने घरों के बदले लेंटर वाले घर हैं। वहाँ उहल नदी पर बाँध भी बन गया, पर उस तरक्की की हवा कभी – हमारे तक नहीं पहुँची।
‘‘वैसे में एैसी तरक्की जरा भी नहीं चाहता, कभी नीचे बरोट जाता हूँ तो वहाँ प्रदेशियों को देखता हूँ घूमते हुए, बडी-बड़ी गाड़ियों में। उनकी औरतें आधे अधूरे कपड़ों में घूमती हम देहातियों को हीन भावना से देखती हैं। हम संकोच से ही अपने पुराने इलाके में घूम पाते हैं और चुपचाप लाला की पुरानी दुकान से वापिस आ जाते हैं। वे लोग वहाँ देवता के मंदिर को मनोरंजन की वस्तु समझ घूमते है बस उन्हें तो हर जगह मौज़ मस्ती नज़र आती है।’’
‘‘ऐसा क्यों बाबा ? क्या तुम अपने इलाके का विकास नहीं चाहते हो?’’
विकास के नाम पर बाबा मुस्कुरा दिया और फिर बोला, ‘‘अरे भई, काहे का विकास, किसका विकास, अब इन पहाड़ों को तुम और ऊँचा तो बना नहीं सकते, तो फिर इन्हें खोदकर छोटा करने को विकास कहते हो। मुझे तो विकास का अर्थ आज तक समझ नहीं आया।’’
‘‘बाबा! विकास सुविधा संपंन जिं़दगी को कहते हैं, अब आप इस जंगल में रहकर थोड़ा समझ पाएँगे।’’
बूढे़ भगतू को ऐसे लगा जैसे ये शहर के दोनों लड़के उसकी जिं़दगी की उजड़ी सी बगिया को काटकर वहाँ कोई अपने लिए आरामगाह बनाना चाहते हों। वह अपने हुक्के की चिलम में और अँगारे डालने लगा जैसे वह इन विकास के दूतों से किसी तरह की बहस नहीं करना चाहता हो। वैसे भी उसे क्या लेना देना इन बातों से, जिस प्रकृति और पारंपरिक ज़िंदगी को उसने जिया है, उसे भला ये शहरी कभी इस पृथ्वी के अस्तित्व तक नहीं जी पाएँगे। उसे तो यहीं ज़िंदगी मिली है उसके भगवान से। भला जब निहालो ‘भगतू की पत्नी’ उसके साथ थी तो यही जीवन आसमान से खुशियाँ टपकाता था, निहालो और वह इस जीवन के रथ को खुशियों से सजाते थे। तब उन्हें यही पहाड़, नाले ईश्वर की देन लगते थे। वह बस मन ही मन निहालो के साथ किसी जंगल की ओर निकल गया था। दोनों दोस्त बाबा की बातों से परेशान से हो गए।
कुछ पल के बाद सन्नाटा टूटा।
‘‘अच्छा तैयारी कर लो अगर सचमुच में ही तुम्हारे दिलों में साहस है तो मैं तुम्हें झील तक ले जाऊँगा, जहाँ कभी सिर्फ़ देवता ही जाते थे, अब तो वहाँ मामूली इंसानों के अपनी इच्छाओं से भरे शरीर नहाने जाते हैं। तुम तैयार रहना, अगर तुम मामूली पर्यटक हो तो सुबह थोड़ा आगे जाकर फिर वापिस लौट जाना और अगर तुममें जुनून है तो फिर उस बर्फ़ीली झील तक ज़रूर चलना। बस चलते रहने से ही कुछ न कुछ प्राप्त होगा, यहाँ बैठ गए तो बस बैठ गए। तुमने नाले के पानी को नहीं देखा, उसकी यात्रा कभी ख़त्म नहीं होती, मैं बचपन से इसे यूँ ही बहते देख रहा हूँ।’’
‘‘बाबा, वैसे तुम्हें डर भी लगता है! अगर लगता है तो किस बात से सबसे ज्यादा डर लगता है?’’
‘‘हाँ मुझे सपनों से सबसे अधिक डर लगता है और दूसरा इन भालूओं से जो कभी भी मुझे चीर सकते है और छोटे -मोटे डर बुनने का मेरे पास कोई कारण नहीं है। वैसे यह नाला हमेशा एक डरावना शोर तो मचाता है, पर उसकी ओर मैं ज़्यादा ध्यान नहीं देता। रात को इसका शोर नन्हें बच्चे सा बन जाता है। तुम भी सुनना, पर जब बर्फ़ इस जगह पर पसरती है, तो यह नाला चुपचाप शांत सा हो जाता हैं।’’
सुबह सूर्य ने अपनी किरणें बिखेर दी थी। घास में दुबकी ओस ने किरणों की गर्मी से अपने लिए नया उद्देश्य बना लिया था। पहाड़ के बीच का धुंधलका छट रहा था।
‘‘पहाड़ का ऊपर बैठा देवता हमारी रक्षा करे!’’ तीनों निकल पडे़। यह बरसात के आगमन का समय था, पर अभी मौसम बिल्कुल साफ़ था। नाले के शोर के साथ-साथ वे चलते रहेे। दोनों ओर ऊँची धारंे उनके इन इरादों को भाँप रही थी। आगे नाले को बडे़ पत्थरों पर लगभग छलागें लगाकर पार करके वे धार पर चढ़ने लगे। बूढ़ा अभी भी सबसे आगे था, उसके प्लास्टिक के बूटों से खपच-खचप की आवाजें़ आ रही थी, उसकी पतली पर मजबूत टाँगंे उन दोनों के मुकाबले लंबे पग भर रही थी, पर वह संकरी पगडंडी पर बिना डर के चढे़ जा रहा था। पगडंडी ने अपने रूप बदलना शुरू कर दिए थे। अब आढ़ी तिरछी पगडंडी मानो अपनी जिद्द में ही खोई थी। पैरों में गले सड़े पत्तों की मिट्टी बन चुकी थी, बण और देवदार के पेड़ों में सूरज की रोशनी बीच-बीच अपने लिए रास्ता बनाने को छटपटा रही थी लेकिन उन्हें रास्ता नहीं मिल रहा था। टिड्डियों ने अपना बेसुरा राग शुरू कर दिया था। पेड़ों का साम्राज्य अपनी विशालता के साथ फैला था।
‘‘बस धीरे-धीरे चलते रहो, यहाँ ज्यादा देर आराम नहीं करते,’’ बूढ़ा उन नवयुवकों को खड़े देखकर चिल्लाया, ‘‘यह जंगल है भाइयो जो नित नई कहानी रचता है, देखो, इसके कुछ पेड़ मेरी तरह बूढ़े हो चुके हैं, पर अभी भी खडे़ हैं, चाहे इनकी छाल गल चुकी है। इस जंगल को पार करके हमें फूलों से भरी चरागाहें मिलेगी, बस किसी भी झाड़ी को हाथ न लगाना खास कर बिच्छू बूटी को वरना फिर खुजलाते रहोगे।’’
बूढ़ा अपने मन में शान लिए जंगल की कहानी सुना रहा था। ये उसके लिए गर्व के पल थे क्योंकि उसके पास जंगल की जानकारी जो है जो वह बिना पूछे सुनाता जा रहा था। पगडंडी ने मोड़ खाया और बूढ़ा पल में अदृश्य हो गया, वह बहुत आगे निकल गया था। इन नौसिखिए टैªकर्स की टाँगों में चाहे अधिक ज़ोर हो पर बूढ़े के सामने वे अभी भी कमजा़ेर ही थे। आगे एक ढलान को चढ़कर उन्हें बूढ़ा बीड़ी के कश मारता पत्थर पर बैठा दिखाई दिया। ‘‘तुम लोग यूँ तो शाम तक पवित्र झील तक नहीं पहुँच सकते। शिव शंभू तुम्हारी रक्षा करे!’’
बूढ़े ने बीड़ी फेंकी और फिर खड़ा हो गया। उसने हाथों में लिए डंडे के नुकीले कोने में फंसे पत्तों को निकाला और फिर चल पड़ा।
लगभग आधे से ज्यादा जंगल चढ़ने के बाद उन तीनों ने अब ऊपर की ओर टकटकी लगा ली थी कि कब उन्हें ऐसी ज़मीन मिल,े जिस पर खड़े होने पर आसमान नज़र आ जाए। तीनों ने पाँव पसार दिए। संकरे रास्ते पर पत्थरों की आट में तीनों बैठ गए। ‘‘बाबा, अब ये तो बता दो कि हमें कहाँ ले जा रहे हो? इस जंगल के अँधेरे ने हमारे थकते शरीर में उठती तरंगों को भी खामोश कर दिया है।’’
‘‘यह अँधेरा नहीं जिज्ञासु नवयुवक, यह तो जंगल की माया है, ऊपर पेड़ों की चोटियों पर यही धूप नए प्रपंच रचती है। भाइयों यह जंगल तो मेरे रोम – रोम में बसा है। इसने मेरी साँसों को जीने का हुनर भी बाँटा है और मेरी ज़िंदगी की साँसे भी चुराई हैं।’’
‘‘अच्छा बाबा, यह तो बताओं कि तुम अकेले वहाँ अपने छप्पर में क्यों रहते हो? हमने तो आप से कल पूछा ही नहीं।’’ राघव बोला।
‘‘अच्छा हुआ नहीं पूछा, अब पूछ लिया है न तो फिर जितना बड़ा यह जंगल है न, उतना ही बड़ा जंगल मेरे अंदर भी रचा बसा है। तुम लोग उसकी विचित्र पल-पल बदलती दुनिया में नित नई पगडंडियों में भटक जाओगे और साथ में मैं भी भटक जाऊँगा, इसलिए चुपचाप मेरे बारे में न सोचो तो ठीक रहेगा।’’
दोनों दोस्तों को लगा कि जैसे बाबा ने उनकी बेइज्ज़ती कर दी हो, पर साथ में उनको बाबा के बारे में जानने की जिज्ञासा भी बढ़ गई थी।
तीनों फिर उठे। वे चलते रहे और जंगल को पार कर गए। जंगल खत्म हो गया था और आगे नंगी चोटियों का नज़ारा नज़र आने लग पड़ा था। दूर क्षितिज तक पहाड़ ही पहाड़। यह धौलाधार का नज़ारा था। राघव ने अपनी दूरबीन बैग से निकाली और दूर चोटियों को देखने लगा।
‘‘वाह प्रकृति का सृजन तभी चाचा तुम वहाँ नीचे अकेले ही रहते हो। ये नज़ारे तुम्हें यहाँ बाँधे रखते हैं।’’
‘‘बच्चा, ये नज़ारे चाहे कैसे भी हों, ये तो हमारी आत्मा के रंगों में रंगे है, हम देहातियों के पूर्वजों ने भी यहीं रंग देखे और हमारे खून की ताकत भी इन्हीं पत्थरों, चट्टानों के साथ मेल खाती है। चलो उठो, डायनासर झील अब आने वाली है, मैं भी तुम्हारी वजह से झील के किनारे बने मंदिर के दर्शन करने का इच्छुक बन गया हूँ।’’
चट्टानों का बीहड़ उनका रास्ता रोक रहा था। दोनों की साँसे उखड़ रही थी, पर बूढ़ा साथी उनसे बहुत आगे से आवाज़ें मारता जा रहा था।
‘‘चलते रहो, चट्टानों के बीच से निकलो।’’ बूढ़े ने एक पल रुककर आगे बढ़ना शुरू कर दिया और वह एक चोटी को चढ़ने लगा। ‘‘चोटी के दूसरी ओर ही झील है बढते चलो।’’ वह फिर चिल्लाया।
थके हारे दोनो दोस्त आख़िर हाँफते हुए चोटी के सिर तक पहुँच ही गए। चहुँ ओर चट्टानों के बीहड़ के बीच आराम फरमाती शीशे के समान साफ़ पानी की बर्फ़ीली झील इन आगुंतकों के अचानक प्रवेश से जैसे अपनी नींद से जाग गई हो।
‘‘यही है वह पवित्र झील और यह पत्थरों का बना भोले शंकर का मंदिर।’’
दोनों झील की सुंदरता के कायल बन चुके थे। बूढ़े ने तब तक अपने कपड़े उतार कर झील में पवित्र डुबकियाँ लगाने की मंशा जाहिर कर दी थी। बूढेे़ ने तब तक डुबकियाँ लगा ली थी। वह चिल्लाया, ‘‘आ जाओ तुम भी पवित्र झील में डुबकियाँ लगा लो।’’
नीला आसमान छंटने लगा। अँधेरा पहाड़ के बीच की गहरी कंदराओं से निकलकर चहुँ और छाने लगा, यही अँधेरा फिर उनके सिर पर मंडराते हुए उनके मन के अंदर महीन तहों में घुसने लगा।
वापिसी में शायद उन्होंने देर कर दी थी। बूढ़ा उनके चेहरों पर उभरते डर के भावोें को भली भांती देख चुका है। ऊपर बादलों की मंडली बहुत अधिक बरसने का प्रयोजन कर रही थी। बूढ़ा बोला, ‘‘हम इस रास्ते से अपने छप्पर तक नहीं पहुँच सकते, मुझे कोई युक्ति लगानी है, अगर मेरी सलाह मानो तो इस धार के दूसरी ओर रहमत अली का दड़बा ‘अस्थायी घर’ है। वह अपनी पत्नी संग व अपने पशुओं संग इस बरसात के समय वहाँ रहता है। हम वहाँ तक दो तीन घंटे भर में पहुँच सकते हैं। चलो हम वहाँ चलते है। वहाँ खाने पीने की कोई कमी नहीं है। दूध, घी और रोटियाँ तो मिल ही जाएँगी। चलो अँधेरे से पहले आगे बढ़ो। बरसात में यह रास्ता फिसलन भरा हो जाएगा और हम फँस जाएँगे। मुझे तुम्हारी चिंता हो रही है। मेरी बात मानो और मेरे साथ – साथ नीचे उतरते रहो, जंगल के एक ओर ही उसका दड़बा दिखाई दे जाएगा।’’
‘‘क्या वह अपने यहाँ रात को रहने देगा?’’ राघव ने प्रश्न किया।
‘‘उसकी चिंता न करो। पहाड़ के आदमी हमेशा पथिकों को आश्रय देते हैं, इन पहाड़ों में हर धर्म जाति बारिश की बूँदों में घुल मिलकर एक से हो जाते हैं, अरे ये लोग तो हमारे अपने ही है। मैं तो कई बार उससे मिल चुका हूँ और तुम्हारे लिए ईश्वर एक ओर नया रोमांच बाँटेगा। मुझ पर विश्वास करो और जो मिल रहा है उसे ग्रहण करो। वरना ये पहाड़ तुम्हें भटका-भटका पत्थर की तरह नीचे लुढ़क देंगे।’’
ऊपर भयंकर गर्जना के साथ बादलों ने पहाड़ के बादल होने का अभिमान प्रदर्शित किया। तो दोनों दोस्तों ने अपने सारथी की बात मान ली।
‘‘बच्चा, ये बादल बडे़ निर्दयी है। कई बार बादल फटते रहें है यहाँ। तुम पूछ रहे थे न कि मैं अकेला क्यों रहता हूँ अपने छप्पर में, तो सुन लो। कोई दस वर्ष पहले अमोघ जल बरसा और मेरी पत्नी बह गई।’’
बूढ़ा कुछ पल के लिए रुक गया। उसके भाव बदल चुके थे। मानो उसकी आँखों से आँसू बादलों से पहले बरसने को तैयार थे, पर फिर भी उन्होंने बादलों को बरसने का आग्रह किया। आँसूओं के बरसने से सिर्फ़ दुख पिघलता है जबकि बादलों के बरसने से प्रकृति के लिए खुशियों के उपहार टपकते हैं।
अँधेरे के छोटे से हिस्से को चीरती हुई दीया सलाई की रगड़ से पैदा हुई रोशनी में बूढे़ का चेहरा किसी पहाड़ के देवता सा असंख्य झुर्रियों के घोंसला नज़र आया। वह फिर बोला, ‘‘तुम पूछ रहे थे न कि मैं अकेला क्यों रहता हूँ?, मेरी पत्नी भी बही थी उस बाढ़ मे, उसका शव बेटा आज तक नहीं मिला, इसी शव की तलाश में मैं आज तक भटक रहा हूँ। उस नाले के एक-एक पत्थर को खोद कर तोड़ता रहता हूँ और इस नाले के इर्द गिर्द बाँध बनाने के लिए पत्थर इकट्ठा करके विभाग वालों को या फिर गाँव वालों को बेच देता हूँ पर उसके निशान आज तक नज़र नहीं आए। हर बरसात में छप्पर से बाहर निकलता हूँ, उफनते नाले में घुस जाता हँू ताकि या तो वह मुझे बहा दे या फिर उसे बाहर निकाल दे।’’
दोनों दोस्तों के चेहरे पर हज़ारों भाव अँधेरेे से उतरकर इस पहाड़ी कर्मठ बूढे़ की गुप्त अराधना की लौ जला रहे थे। राघव बोला, ‘‘अच्छा बाबा, दुख न करो आपके पहाड़ के देवता को जो मंजूर होगा वही सही।’’
‘‘तुम ठीक कहते हो बेटा, तभी तो कहता हूँ, इन पहाड़ों को घूमने की वस्तु न समझो, ये बडे़ निर्दयी है। चाहे ये कई तरह के मूल्यवान पदार्थ, पेड़-पौधे, जड़ी-बूटियाँ पैदा करते हों, पर फिर भी इनकी माया के झांसे में कोई न फँसे। तुम मेरे पाते की उम्र के हो, पता नहीं क्यों तुम दोनों में उसकी सूरत नज़र आई, तो चल पड़ा था तुम्हारे संग, बस अब तुम्हारी चिंता में एक ओर रात उस धड़बे में बिताऊँगा, देखो वो रहा नीचे धड़बा, धुआँ निकल रहा है, रहमत वही है।’’
बादल बरसने शुरू हो चुके थे। घोर गर्जना हुई और वे बिजली की कौंध से उनके चेहरे डर के साए में छिपते नज़र आए। थोड़ा तेज़ चलो। रहमत और उसकी पत्नी अपने धड़बे में इन मेहमानों को देखकर मुस्कुरा दिए।
‘‘रहमत भाई, आज तुम्हारे धड़बे में सहारा ढूँढने फिर से आया हूँ ये मेरे मेहमान है परदेशी है पर हैं बहुत भले इंसान।’’
रहमत ने अपना छोटा हुक्का एक ओर चूल्हे में जलती आग के कोने पर रखा और छोटी -छोटी चटाइयाँ चूल्ह के पास सरका दी। ‘‘बच्चा सिर झुका कर घुसना ये गरीबों के महल हैं, इनके दरवाजे उंचे नहीं होते। आओ आग सेको और अपने बैग कोने में सरका दो।’’
सकुचाते हुए दोनो दोस्त चुपचाप आग की ओर मुँह करके बैठ गए। धड़वा कोई 20 फुट लंबा और चौड़ा होगा। एक ओर सूखी लकड़ियों का ढेर, प्लास्टिक के डिब्बों में दालें, कुछ मामूली बर्तन, दूध की भरी बाल्टी, धड़बे के साथ एक ओर पशुओं का धड़बा था, जहाँ से घुंघुरूओं की आवाजें़ आ रही थीं। दोनों लड़के जिनके कपडे भीग गए थे और वे ठंड से काँप रहे थे। आग सेकते रहे।
बूढे़ रहमत ने दोनों लड़कों की आँखों में झाँकते ही बोलना शुरू किया। ‘‘तुम बाबू लोग बडे़ दूर निकल आए पर इस बरसात में इधर आने की क्या सूझी।’’ दोनों लड़के रहमत को संकोच से देखकर फिर से जल्दी आग को घूरने लगे। वह फिर बोला, ‘‘दुनिया के कैसे रंगीले और जान जोखिम में डालने वाले शौक है। पर अच्छा है इन पहाड़ों को हम चरवाहों के अलावा भी कोई पसंद करता है।’’
राघव थोड़ा मुस्कराते बोला, ‘‘जी चाचा, यह पहाड़ हमेशा कुछ विचित्र करते हैं। हम तो छोटी मोटी यात्राएँ करते हैं पर कुछ ऐसे भी है जो इस दुनिया के सबसे ऊँचे पहाड़ों पर चढ़कर अपना दमखम दिखा चुके हैं।’’
रहमत हँस दिया, ‘‘बाबू यह सब अमीरों के शौक है वैसे धूमते तो हम भी है जब तुम्हारी उम्र का था, तो मैंने कोई भी चोटी न छोड़ी थी। मेरे पिता मुझे भैसें चराने भेजते थे और मैं दूध की बोतल अपने झोले में उठाए कई अनछुई चोटियों की ओर निकल जाता था। बड़ी डाँट खाई थी अपनी माँ की। बस जवानी के शौक हैं। इनको चाह पिला दो जी, देखो तो काँप रहे हैं ठंड से। बच्चा ये पहाड़ की ठंड है जो अँधेरे में बढ़ती जाती है, वैसे भी यह बरसात का मौसम है। रहमत की पत्नी ने दूध से भरी पतीली चूल्हे पर रख दी। रहमत ने पास के एक मैले से डिब्बे से चाय पत्ती की एक मुठ्ठ पतीली में फेंक दी और फिर दूसरे डिब्बे से चीनी। ‘‘लो भाई, तुम्हारे खाने को आज चावल मिलेंगे, आज दाल तो भैंसों से दूध देने के पहले ही बना ली थी। रात को अगर बारिश तेज़ हुई तो मुझे छत पर प्लास्टिक बिछाना पड़ेगा। तुम लोग यहीं कोने में अपना बिस्तर सजा लो।’’
चावल और दाल खाने के बाद दोनों ने धड़बे के एक कोने में नींद का इंतज़ार करना शुरू कर दिया। यह नींद शायद आज बड़ी मुश्किल से आएगी। बाहर तेज़ बारिश शुरू हो चुकी थी। पहली गडगड़ाहट उनके सिर के ऊपर कहीं फूट रही हो। ‘‘घबराना नहीं बच्चा, यह पहाड़ की बिजली है, ये ऐसी ही गड़गड़ाती है।’’
सुबह चाय पीकर वे नीचे उतर आए थे। दोपहर तक दोनों दोस्तों ने बूढे़ भगतू से भी विदा ली और एक वादा कर गए कि वे फिर कभी इसी जगह आएँगे और हो सका तो किसी नए पहाड़ या झील के दर्शनों को जाएँगे।
तीन वर्ष बाद उन्होंने उसी रास्ते पर अपनी जिज्ञासा भरा दिल लेकर कदम बढ़ा दिए। वे दोनों उसी और निकले थे उनका मकसद उसी बूढ़े से मिलने का था जिससे वे कुछ वर्ष पहले मिले थे और उसके डारे में वक्त बिताया था। वह लाजवाब बूढ़ा बार – बार मिलने काबिल बंदा है पर उसे ढूंढना मुश्किल था, पता नहीं वह उस डारे में होगा कि नहीं। वही पगडंडी फिर से धागे की तरह नज़र आ रही थी, पर नाले के दृश्य ने उनके होश उड़ा दिए।
चहुँ ओर विनाश की लीला थी। आगे जिस रास्ते को पार करके वे नाले के दूसरे ओर गए थे, उसका निशान नहीं था। चहुँ ओर बड़े-बड़े पत्थर बिखरे थे। देवदार के टूटे पेड़ नाले में पानी के बहाव में फँसे थे। कुछ छिले हुए देवदारों को काट-काट कर लोग घरों को ले गए थे। आखिर ये क्या हो गया था? राघव बोला, ‘‘मुझे लगता है जैसे यहाँ बादल फटने से प्रलय आया है। दोनांे इस भयानक मंजर को पार करके थोड़ा आगे बढ़े तो उन्हें देवदार के एक लठ्ठे को छीलता अधेड़ सा व्यक्ति पानी की सतह के करीब नज़र आया। दोनों मन में प्रश्नों का बोझा लिए उसके पास पहँुचे,‘‘क्या हुआ है यहाँ?, हम डायनासर झील की ओर चले हैं। क्या ऊपर की ओर भी ऐसा ही प्रलय हुआ है?’’
वह व्यक्ति कुल्हाड़ी चलाते ही बोला, ‘‘भाइयो, अब क्या रखा है ऊपर? हमारे देवता नाराज़ हो गए थे, ऊपर तो इससे भी भयानक मंज़र है, रास्ता भी बह गया है। ऊपर तो बस अब बड़े-बड़े पत्थरों का जंगल है जो उस जलजले में बह आए हैं। भाई पिछले वर्ष भादों महीने के अंत में ऊपर जंगल में बादल फटा और पूरा नाला अपने साथ कई पुल, रास्ते, छप्पर बहाता नीचे ऊहल तक ले गया।
वैभव ने राघव की ओर देखा, ‘‘तो क्या ऊपर एक बाबा का नाले के किनारे वाला छप्पर भी बह गया।’’
‘‘कौन? भगतू का छप्पर! अरे सबसे ज़्यादा नुकसान तो वहीं हुआ है और भगतू बेचारा तो आज तक नहीं मिला, ताकि उसका दाह संस्कार ही कर देते। पता नहीं कौन से पत्थर के नीचे दब गया, बेचारा बड़ा नेक बंदा था।’’
दोनों दोस्तों के चेहरे पर उदासी की धुँध छा चुकी थी।
‘‘तुम उसे कैसे जानते थे?’’
हम पहले आए थे और भगतू बाबा के छप्पर में ही ठहरे थे।’’
‘‘अच्छा, बस पता नहीं क्या पाप किया हम लोगों ने जो इस आसमान ने हमारा ही इलाका चुना। वैसे वह हमेशा कहता था कि लोगों के मन में पाप बढ़ रहा है पर आखि़र उस पुण्य आत्मा को भी नहीं छोड़ा बाढ़ ने। भई तुम कहाँ भटकते रहोगे वहाँ, ऊपर तक सारा रास्ता बर्बाद हो गया है। किसी और जगह घूम लो, अभी झील तक रास्ते का काम चलेगा, अभी तो सब लोग बस रास्ता बनाने का काम शुरू करने वाले हैं। उजाड़ बीयाबान मे तुम क्या घूमोगे।’’
दोनों कुछ देर बातें करने के बाद मन में भय से फ़ैसला करना चाहते थे। राघव बोला, ‘‘हम सिर्फ़ भगतू चाचा के छप्पर के निशान तक आगे बढ़ेंगे’’ और वे दोनों ऊपर नाले के किनारे – किनारे बढ़ते रहे। बादल फटने के बाद विनाश की क्या लीला होती है, दोनों ने ठीक ढंग से देख ली थी। दोनों को मात्र दो किलोमिटर के फासले को पूरा करने में तीन घंटे लग गए। कभी नाले के साथ की धार पर रास्ता ढूँढते हुए ऊपर चढ़ते और फिर नाले में पहँुचते।
भगतू के छप्पर के आस पास की निशानियों से उन्होंने अंदाजा लगाया कि आखि़र यहीं कहीं भगतू बाबा का छप्पर था। बस वहीं से ऊपर का नज़ारा और भी भयावह था।
दोनों ने उस उजाड़ बीयाबान जगह में तिनकों की तरह बिखरी बाबा के छप्पर वाली जगह को प्रणाम किया और उदास से नीचे उतर आए। वापिसी के रास्ते पर राघव ने बड़ी मासूमियत के साथ प्रश्न किया, ‘‘आख़िर बाबा ने क्या पाप किया होगा? क्या सचमुच ही बाबा को देवता के कोप की सजा मिली? या फिर इसका कारण हम जैसे घुसपैठिए हैं।
‘‘राघव, तुम कुछ भी सोच सकते हो, वैसे वह हमेशा कहते तो थे कि बस घुसपैठिओं से अपनी इन वादियों को बचाना होगा, पर शायद ईश्वर ने गलती से भगतू बाबा को ही घुसपैठिया समझ लिया होगा!’’

— संदीप शर्मा

*डॉ. संदीप शर्मा

शिक्षा: पी. एच. डी., बिजनिस मैनेजमैंट व्यवसायः शिक्षक, डी. ए. वी. पब्लिक स्कूल, हमीरपुर (हि.प्र.) में कार्यरत। प्रकाशन: कहानी संग्रह ‘अपने हिस्से का आसमान’ ‘अस्तित्व की तलाश’ व ‘माटी तुझे पुकारेगी’ प्रकाशित। देश, प्रदेश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेख, कविताएँ व कहानियाँ प्रकाशित। निवासः हाउस न. 618, वार्ड न. 1, कृष्णा नगर, हमीरपुर, हिमाचल प्रदेश 177001 फोन 094181-78176, 8219417857