पहली पंक्ति वाले बेदाग अपराधी दंडित हों
हम मानसिक रूप से आज भी गुलाम हैं और इस गुलामी को बनाये रखने में हमारी असफल शिक्षा व्यवस्था की भूमिका अहम है। वास्तविक रूप से शिक्षित हुए बिना ही कॉलेजों/ विश्वविद्यालयों से डिग्रियाँ मिल जाती हैं और येन केन प्रकारेण उच्च पद या उच्च सफलता को हथियाने में सफलता मिल जाती है। कम पढ़े लिखे, संघर्षमय दौड़ में शामिल न हो सकने वाले लोग या मनचाही सफलता से वंचित लोग तथाकथित सफल एवं उच्च पदस्थ लोगों को अपना आदर्श मान लेते हैं। यही से एक प्रछन्न अपराध जन्म लेता है।
आइये, जरा विचार करें। किसी आशाराम, कामुक मौलवी, रेपिस्ट पादरी या रामरहीम के पास भक्तों की अगली पंक्ति में कौन होते हैं ? नि: संदेह हमारा इशारा कुछ डी एम, एस पी, न्यायाधीश, वैज्ञानिक, इंजीनियर, डॉक्टर, सी ए, प्रोफेसर, पूँजीपति एवं राजनेताओं की ओर होगा। बेचारी जनता जब बाबाओं के पास ऐसे महाभक्तों को देखती है तो खुद। अपने दिमाग से सोचना छोड़ देती है और आँखें बंद करके उनके पीछे लग जाती है क्योंकि अग्रिम पंक्ति की तथाकथित महान हस्तियों की अंधभक्ति उसके विवेक पर भारी पड़ती है। फलस्वरूप भीड़ बढ़ने लगती है और बाबाओं के आशीर्वाद की रोचक व चमत्कारी कथाएँ जंगल में लगी आग की तरह फैलने लगती हैं। अपार आत्मसुख देती है। शक्तिशाली चुम्बल की तरह अपनी ओर खींचे रहती है।
फिर तो भक्तों की जमात देखकर ये तथाकथित बाबा भी खुद को जगद्नियंता परमेश्वर या पैगम्बर समझने लगते हैं। उनकी वाणी ईश्वर – इच्छा सी हो जाती है। उनके भक्त बाबा/पीर की आलोचना या मूल्यांकन पर मारने – मरने के लिए तत्पर हो जाते हैं……। कालान्तर में भक्ति परिवर्तित होते हुए शक्ति बन जाती है। लोकतन्त्र पर भीड़तन्त्र प्रभावी हो जाता है और साथ ही प्रभावी हो जाता है अनशन, प्रदर्शन और हिंसा का भयावह खेल। पापलीला का अभ्युदय, ब्लैक बिजनेस की तरक्की और बेकाबू शक्ति प्रदर्शन शुरु हो जाते हैं ।
आए दिन कुकुरमुत्तों की भाँति नये नये बाबाओं के काले कारनामे उजागर होकर नरसंहार होना, महिलाओं की आबरू भंग होना और फिर सलाखों के पीछे पहुँचना आम बात हो गई है जिनकी घोषित संख्या अभी भी वास्तविकता से बहुत कम है या यूँ कहें कि आधे से भी कम है। दोगला मीडिया जो पहले ऐसे बाबाओं के छींकने को भी कवरेज कर रहा होता है, बाद में साँप से भी तेज केचुल बदल लेता है। शासन और प्रशासन के नुमाइंदे यू – टर्न ले लेते हैं। पापाचार और अपराध के प्रांगण में कानून की तीसरी आँख के पहुँचते ही अपना अपना दामन समेटते हुए गधे के सिंग की तरह नौ दौ ग्यारह हो जाते हैं। सही मायने में ये लोग कभी भक्त या समर्थक होते ही नहीं अपितु काला बाजार के हिस्सेदार होते हैं या श्वेत वसन अपराधी या तथाकथित बाबाओं के रसूख से पदोन्नति और अधिकार के आकांक्षी।
हम कहाँ से कहाँ पहुँच गये बाबाओं के साथ। किसी अपराधी बाबा को सजा हो जाती है…..जेल में रहने लगता है और हम इतिश्री कर लेते हैं। कुछ वक्त की खामोशी पसर जाती है। फिर नयी तिजारत के साथ नये बाबा पैदा हो जाते हैं।
आखिर क्यों होता है ऐसा? नये – नये बाबाओं की आपराधिक पापलीला क्यों नहीं रुकती? सबका अंत एक जैसा ही क्यों होता है ? हमाम में सब नंगे क्यों मिलते हैं? आइये विचार करें।
इसके पीछे वही अग्रिम पंक्ति के बगुला – भक्त हैं। सोची -समझी व्यक्तिगत योजना के तहत या मानसिक बीमारी के तहत अक्सर बाबाओं के इर्द – गिर्द देखे जा सकते हैं ये तथाकथित सफल लोग। अगर हम गम्भीर हैं इस मसले को लेकर और रोकना चाहते हैं धर्म और मजहब के नाम पर पनपते पापाचार को, बढ़ते अपराध को तो हमें अगली पंक्ति के बगुल – भक्तों के खिलाफ कठोर कार्यवाही करनी होगी। उनका इतिहास खँगालना होगा। उनके सर्टिफिकेट को रद्द करना होगा, उनके रजिस्ट्रेशन को अवैध ठहराना होगा, ऐसे मीडिया को बाबाओं के साथ जेल में सहचर बनाना होगा, राजनेताओं को सत्ताच्युत करके चुनाव में आने से प्रतिबंधित करना होगा …….। अग्रिम पंक्ति के नर अधमों को उनके अपराधों हेतु जिम्मेवार ठहराना होगा और कठोरतम् सजा की व्यवस्था करनी होगी क्योंकि अपराध की पृष्ठभूमि के असल पोषक यही होते हैं। समाज को सही मायने में पथ भ्रष्ट करने वाले अगुवा यही होते हैं। अंध भीड़ के चितेरे भी यही होते हैं। ये लोग सरकार से वेतन लेते हैं, जनता से कर लेते हैं और चाकरी बाबाओं की करते हैं। पिछड़े लोगों की गलत अगुआई के अपराधी भी ये ही होते हैं। सही मायने में तभी ऐसे बाबाओं का मकड़जाली अभ्युदय रुक सकेगा ।
— डॉ. अवधेश कुमार अवध