कविता

सियारी स्वाँग

आओ कीचड़ उछाले
एक-दूसरे पर जमकर,
तुम हम पर उछालो,
हम तुम पर,
और शाम ढलते ही
किसी चेले-चपाटे के रिसोर्ट पहुँचकर
स्वीमिंग पुल में नहाएं-धोएं, रंग-रूप निखारें,
पियें-पिलाएं,
ढलती रात का मजा लेते हुए
सोएं-सुलाएं
और
फिर से तैयार हो जाएँ
अगले दिन से कीचड़ उछालने के लिए
पूरी ताकत के साथ।
अर्से से यही तो करते आए हैं
हमारे पैसों पर मौज उड़ाने वाले आका
और
हमारी झूठन पर पलने वाले अनुचर भी,
और उधर
बेचारे, मजबूरी के मारे भोले-भाले लोग
इन्हीं भ्रमों में जीते हुए
पूरी की पूरी श्रद्धा और समर्पण के साथ
लुटाते रहे हैं
अपने आपको हम पर
पूज्य-सर्वस्व मानकर।
— डॉ. दीपक आचार्य

*डॉ. दीपक आचार्य

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