कविता

व्यंग्य कविता – भ्रष्टाचार का नतीजा भुगत रहा हूं

पूरे सेवाकाल में भ्रष्टाचार किया हूं
घर परिवार को शानो शौकत दिया हूं
रिटायर्ड हो बहुत बीमार हुआ हूं
भ्रष्टाचार का नतीजा भुगत रहा हूं
हर फाइल के लिए चकरे खिलाता रहा हूं
हरे गुलाबी लेकर ऐश करता रहा हूं
औलाद को कद से ज्यादा शिक्षा दिलाता रहा हूं
भ्रष्टाचार का नतीजा भगत रहा हूं
औलाद ने छोड़कर धिक्कारा है पछता रहा हूं
रिटायर होकर बदनसीबी जी रहा हूं
कोई पूछने वाला नहीं बेज्जत होकर जी रहा हूं
भ्रष्टाचार का नतीजा भुगत रहा हूं
औलाद को भ्रष्टाचार लेकर बड़ा किया हूं
उनकी गुस्सैल बेज्जती नजरोंका शिकारहो रहा हूं
रिटायर्ड हूं फूटी कौड़ी नहीं देते बेज़ार हूं
भ्रष्टाचार का नतीजा भगत रहा हूं
पेंशन भी ले लेते हैं बहुत लाचार हूं
जैसी करनी वैसी भरनी पर सटीक बैठ रहा हूं
अपने पद और कुर्सी का दुरुपयोग किया हूं
भ्रष्टाचार का नतीजा भुगत रहा हूं-3
— किशन सनमुख़दास भावनानी

*किशन भावनानी

कर विशेषज्ञ एड., गोंदिया