कविता

रिश्तों को बदलते देखा है

चंद कागज़ी टुकड़ों पर ईमान बिकते देखा है
चाटुकारिता में जमीर कुचलते देखा है
मैंने रिश्तों को बदलते देखा है
अहम जिंदा रखने के लिए माँ शारदे को मरते देखा है
विद्या का सम्मान करते सत्य को डरता देखा है
मैंने रिश्तों को बदलते देखा है
खून के रिश्तों में खून बहता देखा है
बेटों के बीच सुलह कराती मां को रोते देखा है
मैंने रिश्तों को बदलते देखा है
कोई हैसियत न रखने वालों को हैसियत दिखाते देखा है
पैर की जूती को मुकुट धारण करते देखा है
मैंने रिश्तों को बदलते देखा है
गिरगिट बदनाम यूँ ही हो गए
मैंने इंसानों के रंग बदलते देखा है
मैंने रिश्तों को बदलते देखा है
अज्ञानी बुद्धिजीवों को ज्ञान बांटते देखा है
बाहर न चली कूटनीति को घर में चलाते देखा है
मैंने रिश्तों को बदलते देखा है
माया के अग्निकुंड में स्वाभिमान जलते देखा है
प्रियजनों की दुआओं को बददुआ बनते देखा है
मैंने रिश्तों को बदलते देखा है
नजर मिलाने से डरते हुओं को आंख दिखाते देखा है
शर्म को मैंने कौड़ियों के दाम बिकते देखा है
हां मैंने रिश्तों को बदलते देखा है
— सौम्या अग्रवाल

सौम्या अग्रवाल

अम्बाह, मुरैना (म.प्र.)