कहानी

सफर

सुहानी पिछले 1 घंटे से गुना से श्योपुर जाने वाली ट्रेन का इंतजार कर रही थी। आज मौसम के कारण ट्रेन लेट हो गयी थी। त्यौहार की वजह से घर आने जाने वालों की भीड़ बहुत थी। शनिवार को ही अधिकतर कामकाजी लोग जाना पसंद करते है क्योंकि रविवार का दिन होता है अगले दिन, इसलिए आराम कर सकते है। सितंबर के माह में सुहानी को गणेश चतुर्थी पर घर जाना था। दो माह पहले से टिकट बुक कराने की वजह से टिकट कन्फर्म हो गयी थी। सुहानी आज बहुत खुश थी। आज ऑफिस में उसको उसके मैनेजर से कॉम्प्लिमेंट मिला था और ऑफिस में होने वाली पूरे साल की फीडबैक साईकल में उसको बोनस मिला था। उसकी मेहनत रंग लाई थी। और आज उसको घर जाना था। तो अपनी फेवरेट कुर्ती और जीन्स पहनकर सीधा स्टेशन पर आ गयी
ट्रेन जरा लेट थी तो वहीं स्टेशन पर रखी एक बेंच पर बैठ गयी। आज मौसम काफी अच्छा था। ठंडी-ठंडी हवा चल रही थी। स्टेशन पर मौजूद लोगों को देखते-देखते वो अपने बीते कुछ महीने याद करने लगी। कैसे वो इन महीने इतना व्यस्त रही, इतना वर्कलोड उसने धैर्य और बुध्दिमत्ता से मैनेज किया। घर पर इन कुछ दिन
महीनों में वो अपनी माँ से ढंग से बात भी नहीं कर पायी थी। किसी-किसी दिन तो ये हाल था कि ऑफिस से लौटते समय 10 बज जा रहे थे और सुबह फिर 9 बजे ऑफिस के लिए निकलना होता था। इतनी व्यस्तता में वो खुद को समय नहीं दे पायी थी।
इन्हीं बातों को सोचते-सोचते उसका ध्यान अचानक अनाउंसमेंट पर गया। उसकी ही ट्रेन का अनाउंसमेंट हो रहा था। पाँच मिनट में ट्रेन स्टेशन पर खड़ी थी। सुहानी ट्रेन में जाकर बैठ गयी। बगल की सीट पर एक लड़का बैठा हुआ था। दिखने में एवरेज, रंग सांवला और हंसमुख चेहरा था उसका। अकेले सफर तय करना बोरियत भरा होता है। अचानक सुहानी ने उसको देखते हुए कहा -“ये ट्रेन कितनी लेट है आज!!”
सामने से उत्तर आया – “हां! ये हर बार लेट होती है, मैं तभी इससे कभी नहीं आता हूँ। वो तो आज गलत फंस गया।”
सुहानी- “अच्छा! मैं भी इससे बहुत कम ही आयी हूँ पर भगवान की कृपा से ये समय पर ही आयी है।”
“आपकी किस्मत अच्छी है फिर तो”- हँसते हुए उस लड़के ने जवाब दिया।
सुहानी – “हाँ! क्यों न हो, आखिर सुहानी की किस्मत है किसी ऐरे-गैरे की थोड़े ही है। “
“जी! इस ऐरे गैरे को आदर्श कहते हैं “- आदर्श ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया।
सुहानी(सकुचाते हुए बोली)- “मेरा वो मतलब नहीं था। सॉरी, आप गलत समझ गए।”
आदर्श -“कोई बात नहीं…मुझे बुरा नहीं लगा।”
सुहानी -“धन्यवाद!!”
आदर्श – “आप बातें बहुत अच्छी करती हैं। क्या ये आम तौर पर आपका यही लहजा है?”
सुहानी -“हां, आम तौर पर तो नहीं लेकिन जब मैं खुश होती हूँ तो सीधा दिल से बात करती हूँ “
आदर्श- “ये अंदाज हमें काफी पसंद आया आपका। मतलब आज आप खुश हैं।”
सुहानी – “हां! बहुत….”
आदर्श- “दिलेर हैं काफी आप, वरना अजनबियों के साथ कौन खुशमिजाजी जाहिर करता है।”
सुहानी- “हो सकता है आप गलत हों, 10 मिनट में कोई अनजान तो नहीं समझ सकता कि आप कैसे हो ?”
आदर्श- “हम्म! सो तो है, वैसे आप जा कहाँ रही हैं ? हो सकता है हमारे रास्ते फिर मिल जाएं”
सुहानी- “पता नहीं, मुझे तो लगता है अधिकतम अनजान मुलाकातें पहली और आखिरी ही होती हैं जब तक यूनिवर्स में पहले से ही नियोजित न हो”
आदर्श- “हां, इसका मतलब हमारे रास्ते टकराएंगे या नहीं ये यूनिवर्स पर ही निर्भर करेगा”
सुहानी- “जी, बिल्कुल!”
आदर्श- “एक बात कहूं अगर बुरा न माने तो ?”
सुहानी- “हाँ, अजनबी का क्या बुरा मानना, बुरा तो अपनों से ही लग सकता है । आप बोल सकते हैं।”
आदर्श- “हाज़िरजवाबी में तो कमाल हो, मैं पूछ रहा था इससे पहले और कितनी अनजान मुलाकात हो चुकी है आपकी?”
सुहानी- “हुईं हैं, लेकिन बस या ट्रैन इतने लंबे रुट की नहीं थी जितनी आज है। मेरी आदत है मैं बात करती जाती हूँ अगर सामने वाला भी रुचि रखता है तो, चुपचाप बैठके क्या मिल जाएगा।”
आदर्श(मजाक में) – “अच्छा! हो सकता है ये मुलाकात कुछ खास हो।”
सुहानी- “यस इट कैन बी पॉसिबल, वक्त बताएगा ये तो जनाब”
आदर्श- “मेरा स्टेशन चार घंटे में आएगा, खाना खा लेते हैं भूख भी लगी है।”
सुहानी – “हां, मैं मेरे यहाँ का स्पेशल मारवाड़ी खाना टेस्ट करवाती हूँ। शायद ही कभी खाया होगा।”
फिर उसने हाल ही अपना टिफ़िन खोला जिसमें दाल बाटी, रायता और चूरमा के लड्डू के साथ तैयार रखे थे। आदर्श ने बहुत समय बाद मारवाड़ी खाना खाया था। उसने सुहानी का धन्यवाद किया। और फिर कुछ विषयों पर उनकी बात होती रही। छः घंटे का सफर कब दस मिनट की तरह कट गया। दोनों को पता नहीं चला। कभी कभी कुछ सफर अंजाने में ऐसे यादगार हो जाते हैं जैसे कभी अंजाने वे कभी थे ही नहीं, वे पूर्व नियोजित था।
— सौम्या अग्रवाल

सौम्या अग्रवाल

अम्बाह, मुरैना (म.प्र.)