कविता

चरैवेति

मंथर महाप्रवाह में
तुम कब तक
निःस्तब्ध लेटे रहोगे
संसार सरिता की सतह पर
योगी होने का भ्रम पाले,
कब तक छलते रहोगे
किनारे खड़ी भीड़ को
जो तुम्हें
‘अलौकिक’ समझ बैठी है,
तुम नहीं जानते
सनातन प्रवाह के करतब,
समय आने पर ये
उगला देते हैं ज्वालामुखियाँ
उफना देते हैं लहू का दरिया
और
तब तुम्हारा क्या होगा
पानी पर लेटे, षड़यंत्रों में लिप्त
बेदम-बदहवास मेरे भाई,
नहीं बर्दाश्त करता है
यथार्थ दृष्टा अविरल प्रवाह यह
बीच में अड़े मुर्दों को
और
लगा देता है पार
एक ही झटके में
अग्निदाह की निर्णायक यात्रा के लिए,
धाराएँ अनवरत बढ़ती रहती हैं
पहाड़ों-घाटियों और वनों का संस्पर्श करती
जलधि से परिणय को
अनहद नाद में भर,
महाआनन्द की भावभूमि के साथ
बढ़ती इस यात्रा को
जान लिया था ऋषि-मुनियों ने
कन्दराओं में बैठे-बैठे अपनी ध्यान-समाधि में,
ये उछलकूद में निमग्न चमकती मछलियाँ,
पानी में तैरती-इतराती
हरी कच्छ रंगीन शैवाल,
सप्तरंगी बुलबुले,
तटों की उलझी लताएं,
घाटों पर नहाती लावण्य बालाएँ
सशंकित निगाहों से पानी पीते वनचर
और ढेर सारा सौन्दर्य-संसार
नहीं रखता
कोई मायने
अगर तुम
अब भी
जड़ता से मोहग्रस्त हो
नहीं जान पाए हो
चरेवैति-चरेवैति निनाद का मर्म।

— डॉ. दीपक आचार्य

*डॉ. दीपक आचार्य

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