राजनीति

समान नागरिक संहिता

चूंकि नाम से स्पष्ट है “समान नागरिक संहिता” अर्थात भारत के प्रत्येक नागरिक के लिए एक समान कानून व संविधान। भारत के स्वतंत्रता के 70 वर्ष के पश्चात भी संविधान की मूल अवधारणा के अनुरूप प्रत्येक नागरिक को समान रूप से नहीं देखा गया। उसे हिंदू देखा गया, मुस्लिम देखा गया, ईसाई देखा गया, जबकि कानून व न्याय अनुरूप प्रत्येक भारतीय को एक ही मापदंड से देखा जाना चाहिए था। परंतु संकुचित दृष्टिकोण के चलते सबकुछ जानते समझते हुए भी सरकारों ने इसे यथावत बनाए रखा तथा समान नागरिक संहिता की दिशा में कोई सकारात्मक कदम नहीं उठाए।
समान नागरिक संहिता के समर्थन में संविधान निर्माता बाबा साहब अंबेडकर जी ने भी कहा था कि “मैं व्यक्तिगत रूप से समझ नहीं पा रहा हूं कि किसी मजहब को यह विशाल, व्यापक क्षेत्राधिकार क्यों दिया जाना चाहिए ? ऐसे में तो मजहब जीवन के प्रत्येक पक्ष पर हस्तक्षेप करेगा और विधायिका को उस क्षेत्र पर अतिक्रमण से रोकेगा। यह स्वतंत्रता हमें क्या करने के लिये मिली है? हमारी सामाजिक व्यवस्था असमानता, भेदभाव और अन्य चीजों से भरी है। यह स्वतंत्रता हमे इसलिये मिली है कि हम इस सामाजिक व्यवस्था में जहाँ हमारे मौलिक अधिकारों के साथ विरोध है वहाँ वहाँ सुधार कर सकें।”
समान नागरिक संहिता मूल रूप से तीन श्रेणियों में बाटी जा सकती है,
1) व्यक्तिगत क्षेत्र
2) विवाह, तलाक, गोद लेना
3) संपत्ति का अधिकार व संचालन के अधिकार
व्यक्तिगत क्षेत्र के अंतर्गत हर तरह के नीति नियम, कानून जो निजी जीवन से संबंधित है, हिंदू सिख बौद्ध व जैन पर समान रूप से लागू होते है परन्तु मुस्लिम व ईसाइयों पर लागू नही होते। मुस्लिमों के व्यक्तिगत मामले शरीयत के अनुसार सुलझाए जाते है। तो सबसे बड़ी बात यह प्रश्न है कि यह देश शरियत से चलेगा या संविधान से ? अगर यह देश शरीयत से चलता है तो संविधान का मूल्य ही क्या रह गया ? क्या संविधान केवल बहुसंख्यक हिंदुओं को प्रतिबंधित करने के लिए मात्र एक कानून के तौर पर उपयोग किया जा रहा है ? यदि मुसलमान शरीयत से चलते है, ईसाई बाइबिल के अनुसार, तो फिर हिन्दू को भी गीता के अनुसार ही अपने नीति नियम पालने के लिए स्वतंत्र कर देना चाहिए था, परन्तु ऐसा नही किया गया। केवल मुस्लिम व ईसाइयों को विशेषाधिकार देकर पूर्व सरकारों ने तुष्टिकरण का चक्र ही चलाया है, इसके अतिरिक्त और कोई कारण दिखाई नही देता जो देशहित में हो। जबकि यदि सबके लिए समान कानून का दृष्टिकोण होता तो इस विचार को देशहित माना जा सकता था । क्योंकि तब कानून व न्यायदण्ड का दृष्टिकोण सबके लिए समान होता।
ठीक इसी प्रकार वैवाहिक संबंधो में भी यदि हिन्दू बहु विवाह करता है तो उसको दण्डित किया जाता है, जबकि मुस्लिम बहु विवाह शरीयत अनुसार वैधानिक है, उसे कोई दण्ड नही होगा, जबकि वह इच्छानुसार तलाक देने के लिए भी स्वतंत्र है। वह तो भला हो मोदी सरकार का जो 3 तलाक कानून संसद में लाकर पारित करवाया, जिससे मुस्लिम महिलाओं को कई सदियों के बाद जबरदस्ती के तलाक और हलाला की यातनाओं से मुक्ति मिली। परन्तु फिर भी वैवाहिक संबंधों व मामलों के नीति निर्धारण मुस्लिम समाज में शरीयत के अनुसार ही होते आ रहे हैं, यह बंद होना चाहिए। इसके लिए आवश्यक है की समान नागरिक संहिता भारत के प्रत्येक नागरिक पर लागू हो , उसके बाद ही विवाह, तलाक व गोद लेने के संबंध में भारत के प्रत्येक नागरिक के लिए समान कानून व जिम्मेदारियां होगी।
 ज्ञातव्य है कि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा शाहबानो मामले में दिये गए। शाह बानो एक ६२ वर्षीय मुसलमान महिला और पाँच बच्चों की माँ थीं। जिन्हें १९७८ में उनके पति ने तालाक दे दिया था। मुस्लिम पारिवारिक कानून शरीयत के अनुसार पति पत्नी की मर्ज़ी के विरुद्ध भी ऐसा कर सकता है।
अपनी और अपने बच्चों की जीविका का कोई साधन न होने के कारण शाह बानो पति से गुज़ारा भत्ता लेने के लिये न्यायालय पहुचीं। तब उच्चतम न्यायालय तक पहुँचते मामले को सात साल बीत चुके थे। न्यायालय ने अपराध दंड संहिता की धारा १२५ के अंतर्गत निर्णय लिया जो हर भारतीय पर लागू होता है चाहे वो किसी भी धर्म, जाति या संप्रदाय का हो। न्यायालय ने निर्देश दिया कि शाह बानो को निर्वाह-व्यय के समान जीविका दी जाए।
भारत के मजहबी मुसलमानों के अनुसार यह निर्णय उनकी शरीयत और विधानों पर अनाधिकार हस्तक्षेप था। इसका मुस्लिमों ने पूरे भारत में जमकर विरोध किया। इस मामले को इस्लाम पर आक्रमण बता कर पूरे देश में हिंसा भड़काने के षड्यंत्र भी हुए। मुस्लिम कट्टरवादी नेताओं ने ऑल इंडिया पर्सनल लॉ बोर्ड नाम की एक संस्था बनाई और सभी प्रमुख शहरों में आंदोलन व हिंसा की धमकी दी। उस समय के प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने कट्टरवादी मुस्लिम नेताओं की धमकियों के कारण उनकी मांगें मान लीं। उच्चतम न्यायालय के निर्णय को तात्कालीन राजीव गांधी सरकार ने धार्मिक दबाव में आकर संसद के कानून के माध्यम से पलट दिया था।
ठीक इसी प्रकार मुस्लिम मजहब में महिलाओं के लिए वसीयत के अलग ही नियम हैं। भारतीय मुसलमान अपने व्यक्तिगत कानून या मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) आवेदन अधिनियम, 1937 द्वारा शासित होते हैं। मुसलमानों के बीच विरासत से संबंधित कानून धार्मिक ग्रंथ, कुरान (सुन्ना), विद्वानों की सहमति (इज्मा) से लिया गया है। और सिद्धांतों से कटौती और क्या उचित और सही है (क़िया)। वसीयत के अभाव में मुसलमानों के लिए उत्तराधिकार का कानून शरीयत के अनुसार होगा यह माना जाता है। हालांकि, अगर मृतक ने वसीयत बनाई थी, तो वह पश्चिम बंगाल, मुंबई या मद्रास क्षेत्राधिकार में अचल संपत्ति के मामले में भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 का पालन करेगा। महिलाओं के लिए दहेज या मेहर का कुरानिक अधिकार संपत्ति के उनके अधिकार को परिभाषित करता है। पति, शादी के दौरान (नकद या संपत्ति के रूप में) भुगतान करता है, या मेहर का भुगतान करने का वादा करता है। एक मेहर इस प्रकार एक महिला की संपत्ति का गठन करती है और वह इसे अपनी इच्छानुसार उपयोग कर सकती है। यदि महिला ने मेहर को स्थगित कर दिया है, तो तलाक के बाद उस पर उसके सभी अधिकार होंगे।
अगर मुस्लिम महिला तलाकशुदा है और उसका एक नाबालिग बच्चा है, तो वह अपने पूर्व पति से सीआरपीसी की धारा 125 के तहत पुनर्विवाह होने तक भरण-पोषण की मांग कर सकती है। परन्तु शरीयत के मुताबिक तलाक के बाद गुजारा भत्ता लेना या देना भी कानूनी नहीं है। तब समान नागरिक संहिता की आवश्यकता हमें दिखाई देती है। यदि किसी महिला का बेटा (जो बदले में पिता भी होना चाहिए) की मृत्यु हो जाती है, तो महिला (मां) अपने मृत बेटे की संपत्ति के छठे हिस्से की हकदार होती है। यदि मृतक पुत्र की अपनी कोई संतान नहीं होती तो उसकी माता का अंश एक तिहाई होता। जिन संपत्तियों का कोई वसियतदार नही होता वे वक्फ के अंतर्गत चली जाती है। इसी कारण भारत के बहुत बड़े भूभाग पर आज वक्फ बोर्ड का कब्जा है, जो आने वाले समय में चुनोति बनेगा।
ऐसी कई विसंगतियां सबके लिए अलग अलग कानूनों में पाई गई, जिसके कारण ही भारत की न्यायपालिका कमजोर हुई है, योग्य व्यक्ति को समय से न्याय न मिलना भी अन्याय ही है ।
अलग-अलग धर्मों मजहबों के अलग कानून से न्यायपालिका पर बोझ पड़ता है। समान नागरिक संहिता लागू होने से इस परेशानी से राहत मिलेगी और अदालतों में वर्षों से लंबित पड़े मामलों के फैसले जल्द होंगे। यह एक अच्छा प्रयास हो सकता है, विधी के  शासन को संपन्न कराने में। सभी के लिए कानून में एक समानता से देश में एकता व अखण्डता बढ़ेगी। जिस देश में नागरिकों में एकता होती है, किसी प्रकार वैमनस्य नहीं होता है, वह देश तेजी से विकास के पथ पर आगे बढ़ता है। देश में हर भारतीय पर एक समान कानून लागू होने से देश की राजनीति पर भी असर पड़ेगा और राजनीतिक दल वोट बैंक वाली राजनीति नहीं कर सकेंगे और वोटों का ध्रुवीकरण नहीं होगा। राज्यसभा में प्रस्तुत यह बिल पास हो चुका है शीघ्र ही लोकसभा में पारित होकर यह कानून बन जायेगा। जो कि मोदी सरकार 2 का एक और ऐतिहासिक निर्णय सिद्ध होगा। एक देश एक कानून की दिशा में यह निर्णय भारत के 70 वर्षों के कार्यकाल में सबसे श्रेष्ठ निर्णय सिद्ध होगा। क्योंकि यह निर्णय संविधान की विधि अनुरूप अवधारणा को मजबूत करने वाला है। समान नागरिक संहिता लागू होने से भारत की महिलाओं की स्थिति में भी सुधार आएगा। अभी तो कुछ धर्मों के पर्सनल लॉ में महिलाओं के अधिकार सीमित हैं। इतना ही नहीं, महिलाओं का अपने पिता की संपत्ति पर अधिकार और गोद लेने जैसे मामलों में भी एक समान नियम लागू होंगे। तब जाकर भारत वास्तविकता में पंथ निरपेक्ष कहला सकेगा।
— मंगलेश सोनी

*मंगलेश सोनी

युवा लेखक व स्वतंत्र टिप्पणीकार मनावर जिला धार, मध्यप्रदेश