लघुकथा

बुढापा

“सुलोचना, क्या चली गयी, बेटी ने माँ का रूप धारण कर लिया।”
“पापा, दवाई खा लीजिये, और जल्दी से सो जाइये, मोबाइल रात को बिल्कुल नही खोलना है, वरना नींद नही आएगी।”
“एक बात और, कम्बल ठीक से ओढना पड़ेगा, रात को ठंड बढ़ जाती है, कई बार मैं आकर आपका कम्बल ठीक करती हूं, बिल्कुल छोटे बच्चे बन गए हैं।”
“हे भगवान, क्या ये वही आरती है, जिसके पैदा होने पर अम्मा बोलती थी, बेटा तो हुआ नही, बुढ़ापे में कौन देखभाल करेगा। हां, एक बात तो माननी पड़ेगी, बेटा एक ही परिवार को रोशन करता है, पर बेटियां दोनो परिवारों को जगमग करती हैं। कभी कभी मैं भी इससे चिढ़ जाता हूँ, कितने बंधनो में रखती है, फिर याद आता है, एक उम्र में मैं इसे रोकता था, आज ये मुझे राह दिखाती है।”
“पापा, अभी फ़ोन पर मेरी सहेली ने एक हेल्पर नारायण का नाम बताया है, कल आएगा, पूरी बात उससे करना है, वो दिनभर आपके साथ रहेगा, महीने में एक बार मैं दो दिन को आकर सब व्यवस्थित करके जाऊंगी।”
“सुनो, आरती, तुम अपना भी ध्यान रखना, सुलोचना मुझे अकेला छोड़कर चली गयी, अब सिर्फ दिमाग तुम्हारे ही बारे में सोचता है, राकेश स्वभाव में ठीक है न, तंग तो नही करता।”
“नहीं, पापा, मैंने आपको क्या बोला था, कोई टेंशन नही लेना, सब बढ़िया है, वो राज अंकल से और मेरे से हमेशा मोबाइल में सब बातें करना, ओके, माई डिअर पप्पा, अब गुड नाईट…”
— भगवती सक्सेना गौड़

*भगवती सक्सेना गौड़

बैंगलोर