सामाजिक

नन्हे मुन्नों की जिंदगी और हमारा नजरिया

एक छोटा सा बालक उस गीली मिट्टी के समान होता है जिसे हम माता पिता जिस साँचे ढालना चाहे आसानी से ढाल सकते है. एक बच्चा इस दुनिया के काले सफेद सभी तरह के व्यवहारों से अनजान होता है ,क्योंकि उसके तो  माता पिता  ही उसकी दुनिया होते हैं.
     उसके लिये तो यह सम्पूर्ण जग अच्छा ही है क्योंकि उसकी नजरों मे अभी अबोधता है ,मासूमियत है.उसके ये दो नेत्र जो देखते है वही सही है जैसा व्यवहार वह अपने साथ होता हुआ देखता है अपने आसपास के वातावरण मे होता हुआ देखता है घर में सभी सदस्यों का आपस में देखता है  उसके लिये तो बस वही जीवन में होता
 हैं.
अत: हम बडो का व्यवहार एवं जीने का तरीका बच्चो की जिंदगी सकारात्मक या नकारात्मक बनाने के लिये जिम्मेदार है.
   माता पिता जैसी जिंदगी अपने बच्चों को देना चाहते है वही जिंदगी उन्हें अपने बच्चो को दिखानी भी तो पड़ेगी
     जो आदर्श  जो संस्कार हम अपने बालकों में देना चाहते हैं उनसे उनको परिचित भी तो करवाना पडेगा और यह तो सब जानते ही है कि नन्हे-मुन्ने जितना देखकर सीखते है उतना पढकर नहीं.
    हमारे ये नन्हे मुन्ने और उनका मन अभी बिल्कुल कोरा कागज है उसपर जोभी जैसा भी अंकित होगा वह ताजिंदगी के लिये अमिट ही होगा क्योंकि ये शतप्रतिशत  सत्य है कि बालपन में दिये गये संस्कार नियम आदतें पूरी जिंदगी कभी नही बदलते हैं चाहे व्यक्ति लाख कोशिश कर ले.
   अत हमें हमारे नन्हे मुन्नों का जीवन ऐसा शीतल वायुप्रवाह जैसा बनाने का प्रयास करना चाहिये जिससे ये स्वंयं भी सदा खुश रहे और इनके सम्पर्क  में आने वाला भी इनसे प्रसन्न रहो.
   हमें बच्चों को सिखाना चाहिये कि आसमान में उडने के ख्बाब जरूर देखे किन्तु अपनी जमीन से भी जुडे रहो
  माता पिता को अपनी महत्वकांक्षाओं  और अपनी अपूर्ण रह गयी इच्छाओं को बालकों पर नहीं थोपना चाहिये बल्कि वह जो जीवन में करना चाहते है  उसे करने देना चाहिये.चूँकि अभी उनके पास अभी अनुभव नही है तो बडों का यह दायित्व बनता है कि वह बच्चों की रुचि के उस कार्य के बारे सकारात्मक और नकारात्मक दोनों नजरियों से उसे समझाये और उसे उसके कार्य में सहयोग दें.
  बालकों मे ईश्वर के प्रति आस्था जगायें क्योंकि आने वाली जिंदगी के उतार चढावों में ईश्वर के प्रति भरोसा उसको बडी राहत देगा.
    उन्हे बताना चाहिये कि हमें अपना हर काम पूरी ईमानदारी एवं विश्वास से करना चाहिये फिर उसकी सफलता /असफलता को ईश्वर पर छोड देना चाहिये.
  कभी कभी माता पिता जो अपने बचपन में भोगते है वही व्यवहार अनायास ही अपने बच्चों को दे देते है.
 बडों को सोचना चाहिये कि हमारे बडे जब हमें नहीं समझ पाते थे तो हमारा मन कितना दुखी होता था अत:अब वही अनुभव हमें अपने बच्चों को नही देना है.
    हमें बच्चों की भावनाओं का ,उनके अहसासों का सदा सम्मान करना चाहिए.
  मातापिता अपने रोजाना के व्यवहार में विवेक,धैर्य,विनम्रता, साहस ,ईमानदारी आदि सद्गुणों को लाकर अपने बच्चों को प्रयोगात्मक रूप से सिखायें कि ये सद्गुण सफल एवं शान्त जीवन के वे प्रकाश स्तम्भ है जो हर कठिन परिस्थितियों में सही राह दिखलाते हैं.
   बच्चो को विचारों की ,अभिव्यक्ति  की स्वतन्त्रता  अवश्य दे ताकि वह बेहिचक मन में चल रही हलचलों से बडो को वाकिफ करा सकें.
      मातापिता का प्रोत्साहन नजरिया ही बच्चे को आत्मविश्वास से परिपूर्ण व्यक्तित्व बनाता है.
     इतिहास में अगर देखें तो जितने भी महान व्यक्तित्व हुये हैं चाहे वह स्त्री हो या पुरुष उनकी प्रथम प्रेरणा उनके माता पिता ही थे.हमारे परम पूजनीय भगवान श्री हनुमान जी का ही उदाहरण है बचपन में हनुमान जी अत्यधिक बलवान थे इसी जोश में वह एक बार सूर्य भगवान को निगल गये थे जिससे पूरी सृष्टि में हाहाकार मच गया थी बडी मुश्किल से उन्हें फिर बाहर निकाला था यहाँ हनुमानजी की माँ अँजनी माई ने अपनी पुत्र के अथाह बल को जान लिया था वे फिर इस बल का दुरुपयोग करे इससे पहले ही उन्होनें अपने पुत्र का मन रामभक्ति की ओर मोड दिया था.और आज उनकी रामभक्ति से तो सारा संसार सुपरिचित है ही.
   इसिलिये  बालकों के मातापिता ही सर्वप्रथम गुरु होते हैं.
 अन्त में मैं बस यही कहना चाहती हूँ कि माता पिता का जीवन जीने का तरीका और चीजों को देखने का उनका नजरिया ही उनके अपने बच्चो का व्यक्तित्व और सुन्दर जीवन बनाता है.
— अंजना मनोज गर्ग

अंजना मनोज गर्ग

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