ग़ज़ल
नहीं पांव पड़ते हैं अब तो जमीं पे, के दिल आसमां में उड़ने लगा है।
सुनता नहीं है हमारी कोई गल,न जाने कहां पे भटकने लगा है।
संभाला बहुत पर नहीं अब संभलता,जिद पे अड़ा है पागल दिवाना,
खुद की शिकायत करें खुद से कैसे अपनी ही धुन में रहने लगा है।
नई हैं निगाहें नई हैं पनाहें, राहें नई हैं मंजिल नई,
न गिरने का डर है न है डूबने का,लहरों के उपर चलने लगा है।
ख़्वाहिश हों पूरी सपने हों पूरे, उम्मीद की नाव पर आ चलें,
है नाखुदा भी अब साथ तेरे, के तूफां की हद से गुज़रने लगा है।
“स्वाती” बढ़ाले अब तो कदम, सुहाने सफ़र का ये आगाज़ है,
फैली है अब रौशनी रूह तक, शबे-ग़म का मंजर बदलने लगा है।
— पुष्पा अवस्थी “स्वाती”