गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

दी हुई इस भंग से अब , कैसे में खुद को बचाऊँ
आज देख तरंग से अब , कैसे मै खुद को बचाऊँ

आज खेलूँ देख होली , शोर कितना अब मचा है
रोगन मिले रंग से अब , कैसे मैं खुद को बचाऊँ

इश्क़ रंगों से किया है, आज डर लगता इन्हीं से
आज इस बदरंग से अब , कैसे मैं खुद को बचाऊँ

चाहतें मेरी यही हैं , अब सुधरते ही रहें सब
सुन बुरे ही संग से अब , कैसे मैं खुद को बचाऊँ

खेल होली साथ देते , पर डुबोते आज टब में
आज तो अनुषंग से अब , कैसे मैं खुद को मैं बचाऊँ

डालते है रंग कैसे , वे भिगोते हैं सभी को
होली के हुड़दंग से अब , कैसे मैं खुद को बचाऊँ

रंग लगाओ आज अच्छे , हों अबीर गुलाल चाहे
लाल पीले रंग से अब, कैसे मैं खुद को बचाऊँ

— रवि रश्मि ‘अनुभूति’