कविता

मरती संवेदनाएं

यह कैसा बदलाव आज के इंसानों में हो रहा
हमारा समाज आज कैसे बदल रहा है
आज के इंसानों का जमीर मरता जा रहा है,
आधुनिकता का चलन इतना बेमुरव्वत होता जा रहा है
कि आज इंसान जानवरों की कतार में
खड़ा होने लायक भी नहीं बचा है
बड़े अरमान से मां बाप हमें
पाल पोसकर बड़ा करते हैं
जाने कितनी पीड़ा सहते हैं
फिर भी हंसते रहते हैं
औलाद के लिए जहर का घूंट भी
खुशी खुशी पी लेते हैं।
और हमारी आंखों का पानी भर जाता है
बुजुर्ग मां बाप का साथ परेशान करता है
तब हम उन्हें बृद्धाश्रम भेजें देते हैं
अपने ही घर से उन्हें बेघर करने तक में नहीं सकुचाते हैं।
अपने को आधुनिक कहते हैं
जिनकी बदौलत हम इस जहां में हैं
शान शौकत, सम्मान से जीने का हक पा रहे
चार अक्षर पढ़ लिया
चार पैसे कमाने लायक बन गये तब
हम बड़े समझदार बन रहे हैं
अपनी नालायकी को कुतर्क से
सही साबित करने का घमंड कर रहे।
ये कभी नहीं सोचते कि ये जीवन
मां बाप की कर्जदार है
आज जो हम हैं उसमें
मां बाप का खून पसीना लगा है
उनकी ख्वाहिशों की बलिबेदी पर हवन से मिला है
तब आज हम आसमान में उड़ रहे हैं
मां बाप को गंवार, बेवकूफ, कम समझदार समझ रहे हैं
हम भूल जाते हैं कि हम अपनी औलादों को
अपनी ही नज़ीर दे रहे हैं।
खुद के वृद्धाश्रम जाने की राह बना रहे हैं।
क्योंकि हमारी संवेदनाएं तो अभी थोड़ी जिंदा भी हैं
नयी पीढ़ी को तो संवेदनाओं की समझ ही नहीं है
यूं समझिए हमारी पीढ़ी की संवेदनाएं
वेंटीलेटर पर सिसक रही हैं,
काफी कुछ दम तोड़ रही हैं,
मरती संवेदनाओं की पतवार नयी पीढ़ी बनेगी
ये सोचना भी अब दिशा स्वप्न है।
हालात जो दिख रहे हैं उससे लगता है
बड़े और अमीरों का मृत्यु के बाद अंतिम संस्कार भी
पैसे की बदौलत किराए के आदमियों से
अथवा ठेके पर ही संपन्न होगा,
या लावारिस की तरह होगा।
क्योंकि अपनी औलादों के पास तो
इन बेकार के कामों के लिए समय ही नहीं होगा
या न आने का व्यस्तता का बहाना होगा
तब भला आप खुद सोचिए
आखिर आगे और क्या होगा?

 

*सुधीर श्रीवास्तव

शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल, बड़गाँव, गोण्डा, उ.प्र.,271002 व्हाट्सएप मो.-8115285921