कविता

शायद तुमने इस सरिता को पहचाना नहीं

मैं राधा सी विराट नहीं बन सकती, जो अपने कृष्ण को गोपियों के संग उन्मुक्त होते विचरने की छूट दूँ।
“सीता सी समर्थ हूँ”
मुझे हर चीज़ पर एकाधिकार चाहिए ,
वैसे हरगिज़ नहीं जैसे तुम कहने भर को मेरे हो पर हो किसी और के..
धुँधला सफ़र क्यूँ चुनूँ?
जिसमें न राह दिखे न मंज़िल का पता हो..
हमसफ़र ऐसा चाहिए जो मुझसे मुझ तक वाबस्ता हो।
ये जो एक महीन धागे से जुड़े हो तुम मेरे वजूद से लिपटे! वो मोहब्बत नहीं मोह है महज़।
मैं वो दरिया ढूँढती हूँ इश्क का जिसका किनारा सिर्फ़ मेरी परिधि तक पसरा हो,
मेरे मांझी की एक भी लहर पर किसी ओर का कोई न पहरा हो।
सूखे पत्ते सी क्यूँ भटकूँ, मेरी चाहत की क्षितिज को चाहिए महफ़ूज़ पनाह, बूँद-बूँद बन बरसूँ जब-जब थामने तुम्हारी बाहें हाज़िर हो।
वादे की गहरी नींव रखो गर मासूम मेरी हथेली पर, सोचूँ न कुछ समझूँ नाम तुम्हारे खुद को करके चैन की चंद साँसें तो लूँ।
क्या दे सकते हो उस शाश्वत प्रेम की प्यारी सौगात? जिस पर सिर्फ़ मेरा हक हो..
अगर हाँ तो मेरे तट पर झिलमिलाती हर रोशनी तुम्हारे नाम है।
“वरना लौट जाओ उसी गली जहाँ बसता तुम्हारे दायरे का संसार है”
तय कर लो रिश्ता मुझसे अभी के अभी, मेरे अस्तित्व का सवाल है।
या तो निर्मोही बन जाओ मेरे प्रति या अनुरागी बन आह्वान दो, सोचकर दी गई संमति के इंतज़ार में खड़ी नहीं रह सकती मैं ताज़िंदगी।
शायद तुमने इस सरिता को पहचाना नहीं, दरिया अपनी पसंद का हो तो भी थामूँ नहीं, जिसमें सैंकडों लहरों की आवन-जावन हो।
— भावना ठाकर ‘भावु’

*भावना ठाकर

बेंगलोर