कविता

बेकरार दिल

ढुँढ रहा हुँ तुम्हें मैं वन उपवन
ख्वाबों में बसी हो बन दुल्हन
सामने आ जा अब मेरे सनम
क्यूँ तड़पाती हो बन  उलझन

सारा जमाना है अपना दुश्मन
फिर भी पसंद हो तुम हमदम
उल्फत बिछा है  कदम कदम
तेरे आँचल में भुला देगें ये गम

क्या सोंच रही हो मेरी शबनम
तोड़ के आजा जग के बंधन
तेरा मेरा है जन्मों का अनुबंध
महका दो मेरा उजड़ा गुलशन

एक दुजै के लिए है ये सर्मपण
साथ जी लेगें दुःख सुख में हम
झेल लेगें जग  में कदम कदम
दूर कर देगें जीवन का      तम

परवाज बन उड़ेगें नील   गगन
चाहे जमाने से हो जाये अनबन
बादलों की गाँव में बस जाये हम
वापस ना लौटेगें जमीं पर   हम

— उदय किशोर साह

उदय किशोर साह

पत्रकार, दैनिक भास्कर जयपुर बाँका मो० पो० जयपुर जिला बाँका बिहार मो.-9546115088