कहानी

कहानी –  कुटुम्ब भोज

फूफा फूलचंद की फुफकार और ललकार से ही गजोधर बाबू की इज्जत – आबरू बची ! राहत मिली थी ! वरना आज तो गोतिया भाईयों ने भरी समाज में उसकी दो गज धोती खोलवाने का पूरा पूरा इंतजाम कर रखा था। मतलब कि धोती खूलन से बाल-बाल बच गया था गजोधर बाबू…!

निर्धारित समय पर हम शाम को “कुटुम्ब भोज “पार्टी में पहुंच गए थे। उसके पहले ही गजोधर के घर में हंगामा शुरू हो गया था और अब भी यहां मछली बाज़ार सा माहौल बना हुआ था। शांति पूर्वक “ कुटुम्ब भोज “पार्टी सम्पन्न कराने के गजोधर बाबू के सारे किए कराए तैयारी पर उनके गोतिया भाईयों ने मांड बहाने की तैयारी कर रखा था …!

शादी कल ही सम्पन्न हो चुकी थी। घर में बहू भी आ चुकी थी। इसी खुशी में आज गजोधर ने “कुटुम्ब भोज “पार्टी का आयोजन किया था। उसके सारे हित-मित्र आ रहे थे।

हम भी सपरिवार आमंत्रित थे “शाम सात बजे से आपके आने तक “शादी कार्ड में उल्लेख था। सुबह में ही घर में सभी ने जाने का मन बना लिए थे। दोनों बच्चे कुछ ज्यादा ही उत्साहित थे। अलबत्ता पत्नी का मूड बच्चों से मेल नहीं खा रहा था। बूफे पार्टी में कभी गई नहीं थी। सो उसके मन में कई सवाल थे। और मेरे पास उसके किसी सवाल का जवाब नहीं था।

मैं आफिस के लिए निकल रहा था कि तभी सामने आकर पत्नी ने सवाल दाग दिया-”यह बूफे सिस्टम कैसा होता है ? सुनकर ही दोनों बच्चे बहुत खुश हैं और जाने के लिए अभी से ही ऊधम मचा रहे हैं ! ”

पहले तो प्यार से मैंने पत्नी के कंधे पर हाथ रखा और दुलार से कहा- “देखो, बताने से तुम नहीं समझ पाओगी, मै भी इस तरह के खान पान में आज तक शामिल नहीं हुआ हूं। हां सुना जरूर हूं। देखते है न, कैसा होता है,शाम को सब तैयार रहना…!”कहता हुआ मैं घर से निकल पड़ा था।

रास्ते में मुझे पुराने दिन याद आ गये। आपको भी याद होगा। आज से दस बारह साल पहले विवाह-भोज में लोग जमीन पर पांत लगा कर एक साथ बैठकर सखुआ पतल पर मज़े से भोजन करते थे। मजे की बात तो यह होती थी कि जब तक पूरी पांत के पतरों पर खाना पूरा पूरा परोसा नहीं जाता था, पूड़ी का एक टुकडा या भात का एक कोर भी कोई मुंह में नहीं डालते थे “हां शुरू किया जाए….?”कोई कहता

“हां, हां शुरू किया जाए…!”इस तरह के जवाब के साथ लोग खाना शुरू करते थे। लोग भर पेट खाते फिर -” उठा जाए, हाथ धोया जाए..कि और किसी को कुछ लेना है ?”उठने से पहले फिर कोई पूछता था।

“नहीं.नहीं . हो गया…!”पांत के बीच से ही कोई जवाब देता।

“हां, हां, उठा जाए, एक एक करके धोया जाए…!”यह खाने के बाद का सामूहिक स्वर होता था। कैसा अपनापन कैसा भाई चारा हुआ करता था तब ! भाई-चारे की डोर से सब एक दूसरे से बंधे होते थे। खाने में किसी चीज की कोई कमी होती तो कोई शिकवा शिकायत नहीं -”अरे नहीं जुटा पाया होगा ..!”कहते हुए लोग निकल लेते ! राग-रूस नहीं करते थे ! लोग खाते कम परन्तु भाई चारा की पुडियों से सबका पेट भरा रहता था…!

इसी के साथ मुझे दोस्त रमेश की बात भी याद आ गई। वह अपने एक दोस्त के घर की बहू भात (बूफे पार्टी) की आपबीती सुनाते हुए एक दिन कह रहा था -”आज कल खाने में कितनी भी वेराइटी बढ़वा दो, लेकिन लोगों को खोट निकालने में जरा भी देर नहीं लगता-”क्या बोलूं यार, खाने का अरेंजमेंट खूब किया था पर मीट ठीक से गला नहीं था, दांत से खींचना पड़ता था-शायद बूढ़ा खस्सी था…!”एक बोला

“मैंने केटरर्स से बोला दो पीस और डाल दो- डाला नहीं,शायद उसे बोल रखा गया हो”दो से ज्यादा देना नहीं..!”अब इतना दूर से सिर्फ दो पीस मीट खाने आएं ..!”दूसरा बोला

“क्या कहूं यार ! मेरा तो मन ही खिन्न हो उठा..!”

“क्यों, क्या हो गया..?”

“वो रतन लाल,प्लेट लेकर मेरे सामने ही आकर खाने लगा था। पीछे से किसी ने उसे धक्का दे दिया, उसके प्लेट का सारा खाना छिलक आकर मेरे शर्ट पर गिर गया – देखो ! खड़े होकर खाना मतलब ऊंट की तरह खाना है। स्याला गुस्सा तो इतना आया कि मन किया अपना प्लेट रतन पर फेंक दूं। परन्तु मन मार कर रह जाना पड़ा। उसका क्या दोष ? – दोष इस तरह के आर्गनाइज का है! सवारी गाड़ी में जैसे सब ठूसा- ठूंसी होते है, एक दूसरे पर सवार होने के लिए ,उसी तरह यह बूफे सिस्टम है – पहले प्लेट हथियाओ फिर खाने के लिए लाइन में खड़े हो जाओ- सिनेमा के टिकट लेने जैसा, फिर धीरे धीरे आगे बढ़ते जाओ, पेट में खाना जाने से पहले भीखमंगों सी फिलिंग आ जाती है। मैं जल्दी से जाकर पानी से शर्ट को धोया पर दाग पूरी तरह गया नहीं-क्लीनर में देना होगा- स्याले बूफे की ऐसी तैसी..!”तीसरे की थोथी…!

आफिस में काम ज्यादा कुछ था नहीं। एक सालाना मांग पत्र बनाया और घर वापस आ गया था। बच्चे जाने को तैयार थे। मैं फ्रेस हुआ। कपड़े बदले और शाम को सपरिवार निकल पड़े थे।

उधर जैसे ही रसोईया ने गजोधर बाबू को सूचना दी “खाना तैयार है “।

वैसे ही गजोधर बाबू गोतिया भाईयों को बुलाने सीधे उनके घर जा पहुंचा था। गोतिया भाईयों ने उसे हाथों-हाथ लिया जैसे इसी घड़ी के इंतजार में अपने अपने घरों के बाहर वे सभी बैठे हुए थे। जहां एक- एक करके सबने गजोधर बाबू को लताड़ने शुरू कर दिए। शुरुआत उसके बडका जेठा ने खैनी थूक कर किया “गजोधर बाबू, हमें मालूम है, तुम बडका आदमी बन गया है, शानदार मकान भी बना लिया है,चार चक्का वाला गाड़ी भी खरीद लिया है,बोड-बोड लोगों के संग तुम्हरा उठना बैठना होता है, बड़ी बड़ी पार्टियों में खाने जाता है,नित-नोतन चीज देखता-सुनता है,हम तो कुंआ के बेंग ( मेंढक) ठहरे..!”जेठा ने बचा खुचा खैनी थूका और फिर चालू हो गया- “ लेकिन सुन लो गजोधर बाबू, हम कुंए के बेंग जरूर है लेकिन भीखमंगा नहीं है और न हम तुम्हरा घर जाकर हाथ में पलेट लेकर खाने के लिए भीख मांगते-”दो भाई, दो भाई..!”कहते फिरेंगे,जाओ घर जाओ और घर आये अपने मेहमानों को खिलाओ जैसे वो तुम्हें खिलाते हैं…!”

“हम छोटे आदमी जरूर है लेकिन अपनी मान मर्यादा हमें मालूम है..।”मंझिला जेठा ने जोड़ा था- “

“सिर्फ अधिक पैसा कमा लेने से कोई बड़का आदमी नहीं बन जाता, गुण-संस्कार पैसों से नहीं कमाया जा सकता है, वह तो अपनी बिरादरी, अपने समाज में बैठने-उठने से मुफ्त मिल जाता है। लेकिन तुम तो समाज को छोड़ चुका है। अपनी लोक- लोकाचारी भूल चुका है , बड़ा आदमी बन चुका है। “

“चार पैसा कमा क्या लिया, चला है हमें बाहरी तड़क भड़क दिखाने- सीखाने,बाप -दादाओं, आजा-पुरखों की संस्कृति को भूलाने वाले को गोतिया बिरादरी से बाहर निकालो…”बहुत कम बोलने वाले बड़का जेठा का बड़ा बेटा रघुनाथ का गुस्सा एक दम चरम पर पहुंच गया था।

गजोधर बाबू ! काटो तो खून नहीं वाली स्थिति में घिर चुका था। उसकी इच्छा, उसके सपने, समाज में बदलाव वाली उसकी सोच को जैसे लकवा मार दिया था। मुंह से बोल नहीं निकल पा रहा था। हकाबका कभी बड़का जेठा को देखता तो कभी उसके बड़े बेटे को जिसने अभी अभी एक चेतावनी दे डाली थी- “निकाल इसे गोतिया बिरादरी से, बूफे सिस्टम से बहू भात का आयोजन करेंगे-किसी से पूछा- नहीं पूछा न ,अभी आया है अपनी हेकड़ी दिखाने-खाना खिलाने नहीं…!”

शोर और भीड़ पंडाल से निकल कर गली में आ गया था। खाना शुरू होने के पहले गोतिया बिरादरी ने बंद का नोटिस लगा दिया था। गोतिया भाईयों के बीच गजोधर गूंगा बन चुका था। तभी उसके फूफा फूलचंद महतो पहुंचा था वहां पर। आगे बढ़ कर गजोधर बाबू ने फूफा का पैर छूकर प्रणाम किया-”गोड लागी फूफा ..।”

“सदा खुश रहो भतीज..।”फूलचंद ने गजोधर बाबू के सर पे हाथ रखा फिर बोला -”अरे भाई, सारे लोग यहां इकठ्ठा हो गये हैं, वहां पूरा का पूरा पंडाल खाली है। खिलाने वाले खाली हाथ पकड़े खड़े , आखिर माजरा क्या -गजोधर बाबू ?” फूलचंद फूल स्पीड से सीधे पंडाल से भागे चले आ रहे थे।

“हाथ में प्लेट लेकर भीख मांग कर खड़े खड़े खाना होगा-फूफा..!”रघुनाथ गुस्से में ही बखेड़े का कारण बताना चाहा था।

“मतलब नहीं समझा मैं..?”फूलचंद ने गजोधर बाबू की तरफ देखा। गजोधर बाबू मुंह खोलता उसके पहले मंझिला जेठा ने कहना शुरू कर दिया-”

“मतलब साफ है बहनोई , हम सबने फैसला किया है बूफे सिस्टम के तहत हाथ में प्लेट लेकर भीख मांगते हुए हम खाना नहीं खायेंगे। गजोधर बाबू ने बूफे सिस्टम आयोजन कर रखा है वो हमें मंजूर नहीं है। ज़मीन पर बैठ कर पांत लगाकर आज तक खाते आये हैं, वैसे ही खायेंगे..!”

”खाना कब शुरू होगा बाबू जी, जोरों की भूख लगी है..!”बेटी पिंकी को भूख बर्दाश्त नहीं हो रही थी।

शोर गुल से पत्नी भी परेशान होने लगी थी। मामला भी शांत नहीं हो रहा था। आकर बिना खाए लौट जाना भी ठीक नहीं था। आकर बुरे फंसे थे हम। हम क्या, ढेरों लोग खाने के इंतजार में पंडाल के भीतर इधर उधर टहल रहे थे।

“अच्छा तो यह बात है ! “फूलचंद ने मामले को फूल की तरह सूंघ लिया फिर बोलना शुरू किया था-”आप लोग एक बात बताइए, पहले हमारी बारात बैल गाड़ियों के साथ निकलती थी, आज बोलोरो-स्कॉरपियो में निकलती है-निकलती है न …?”

फूलचंद ने भीड़ से पूछा।

“हां निकलती है…!”किसी ने कहा

“बहुतों को याद होगा, बारात निकलने के दो चार दिन पहले गाड़ीवान को डबल सुपारी दी जाती थी बारात जाने की। तब से ही वह बैल और गाड़ी को सजाना शुरू कर देता था। जैसे आज दुल्हे वाली गाड़ी को सजवाते है हम। उसी तरह उन दिनों बैलगाड़ियों को खूब सजाया जाता था। घांटी- घुंघरूओं से सजे बैलगाड़ियों के साथ जब किसी की बारात निकलती थी तो लगता किसी नसीब वाले की बारात निकली है । हम बैलगाड़ी से स्कॉरपियो में आ गए तब तो हमें कोई दिक्कत नहीं हुई, किसी को कोई एतराज़ नहीं हुआ।”फूलचंद फूल स्पीड में जारी था -” पहले हम सौ आदमियों को निमंत्रण भेजते तो दस आते थे और पांत लगाकर बैठ कर खाते और जाते थे। न जगह की कमी,न खाने की कमी,मन मुताबिक खाकर खुशी खुशी जाते थे। आज स्थिति उलट है, सौ आदमियों को निमंत्रण कार्ड भेजो, पांच सौ पहुंच जाते हैं। बैठा कर खिलाने के लिए फूटबॉल मैदान भी कम पड़ जाएगा। खाने में कुछ घटना बढ़ना तो स्वभाविक है। खान पान में बदलाव लाकर ही इस स्थिति से बचा जा सकता है। समय के साथ हर चीज में बदलाव आता है। खान-पान, पहनावा-ओढावा, नाच-गान, वेष-भूषा सभी में। बदलाव भी जरूरी है। ढिबरी युग से निकल कर बिजली युग में आते आते कितने बदलाव हुए। आज लड़कियां जीन्स पैंट पहनने लगी है लड़के के पहनावे आप सब देख ही रहे हैं, कोई धोती कमीज पहन शादी करना नहीं चाहते, शर्ट पैंट-कोर्ट-टाई चाहिए । आज की बहन-बेटियां करम-जावा गीत नहीं जानती- डी जे की धून में जींस पहन कर नाचती हैं।करम आखरा में ढोल-मांदर की जगह अब डी जे बजता है, तब आपको पुरखों की संस्कृति की याद नहीं आती है ? क्या किसी ने इस बदलते मिजाज को रोक पाया-नहीं न ? यह बदलाव का दौर है। इस दौर में हमारे हाथ से बहुत कुछ छूट रहा है। नया-नया बहुत कुछ जूड रहा है। पुराने ख्यालात को भी छोड़ना होगा। बेकार की ज़िद्द छोड़िए। जो समय के साथ नहीं बदलता है, उसे समय बदल देता है ..! बहुत समय हो चुका है अब खाने में विलम्ब नहीं करना चाहिए क्या कहते हैं आप लोग…!”

“हम फूफा की बात का समर्थन करते है..!”गजोधर बाबू के बड़का जेठा का छोटा बेटा राजेश सामने आ गया। ताली बजा कर सभी ने फूलचंद महतो की बातों का समर्थन किए “हम सब आपकी बातों से सहमत हैं..!”भीड़ से आवाज आई। रघुनाथ अबकी चुपचाप खड़ा था।

गजोधर बाबू ने बुद्धिमानी से काम लिया और बड़का जेठा के सामने हाथ जोड़ खड़ा हो गया। बोला -”मेरा बाप मर चुका है,आप जिंदा हो, आप ही हमारे बाप है, बेटे से कुछ गलती हो गई है तो माफ़ कर दो और चलिए खाना खाने की शुरुआत कर दीजिए, आप नहीं जाएंगे तो कोई नहीं खाएगा, भूखे कब से सभी खड़े हैं। “

बड़का जेठा को जो मान सम्मान मिलना चाहिए,वह उसे मिला “गुंगू (जेठा) चलो खाने की शुरुआत कर दो .!”यह पूर्वजों वाली इज्जत था।

बड़का जेठा खड़ा होते ही रो पड़ा और गजोधर बाबू को गले लगा लिया फिर बोल पड़ा- “पगले तुमने आज अपने गुंगू (जेठा )को रूला दिया न ! चलो भाईयों – बहू भात खाते है…!”आंख पोछते वह आगे बढ़ गये थे। इसी के साथ सब पंडाल की ओर चल पड़े थे…।

“बड़का जेठा रूठा था,बकरे की मूंडी वास्ते – बकरे की गोडी(पैर) मिली “

घर पहुंच कर पत्नी ने कहा-”खड़े होकर खाने में बड़ी शर्म लग रही थी..!”

-”शर्माना मनुष्यों का फैशन नहीं – गहना होता है। पेटीकोट के नीचे पहली बार जब तुमने पेंटी पहनी थी तब कितनी शर्माई थी-याद है…! ”

“वह तो मैं तुम्हारी बातों में आ गई थी ..!”

“जीवन में इसी तरह बदलाव होते रहते हैं, कोई किसी की बातों में आ जाता है, कोई किसी की बातों में आ जाती है, जीवन इसी तरह चलता रहता है..!”

— श्यामल बिहारी महतो

*श्यामल बिहारी महतो

जन्म: पन्द्रह फरवरी उन्नीस सौ उन्हतर मुंगो ग्राम में बोकारो जिला झारखंड में शिक्षा:स्नातक प्रकाशन: बहेलियों के बीच कहानी संग्रह भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित तथा अन्य दो कहानी संग्रह बिजनेस और लतखोर प्रकाशित और कोयला का फूल उपन्यास प्रकाशित पांचवीं प्रेस में संप्रति: तारमी कोलियरी सीसीएल में कार्मिक विभाग में वरीय लिपिक स्पेशल ग्रेड पद पर कार्यरत और मजदूर यूनियन में सक्रिय