गीत/नवगीत

क्यूँ सो रहे थे

तुम सो रहे थे पहले भी

और सो रहे हो आज भी
पहले भी ना कभी रात थी
आज दिन लगता रात भी
वो खर्राटों को जानते हैं
कि तुम हो गहरी नींद में
करते रहे वो घात यूँ
तुम जी ते रहे उम्मीद में
करवट बदलने पर तेरे
क्या कोई करेगा नाज भी ।
तुम सो रहे थे पहले भी
तुम सो रहे हो आज भी ।।
घर लुटा अस्मत लुटी
विध्वंस ने की चित्रकारी
बेझिझक सोता रहा तू
निकल गयी सदियाँ विचारी
वर्त के इस गर्त में तू
डूबा हुआ है आज भी ।
तुम सो रहे थे पहले भी
तुम सो रहे हो आज भी । ।
हो जा खड़ा अब शयन से
आलस भगा अब नयन से
ना लेनी अब फिर से उवासी
कुछ बोल तीखे वयन से
दुश्मन खड़ा है द्वार तेरे
झपट पड़ बन बाज भी ।
तुम सो रहे थे पहले भी
क्यूं सो रहे हो आज भी ।।
दशा बदलेंगी जब तू जगेगा
पेड़ में फिर फल लगेगा
मँढ़ेगा इतिहास प्यारा
ठहरा जल आगे बढ़ेगा
जो जग जाओगे आज भी
तो जग जायेंगे भाग भी ।।
तुम सो रहे थे पहले भी
क्यूँ सो रहे हो आज भी ।।
— व्यग्र पाण्डे

विश्वम्भर पाण्डेय 'व्यग्र'

विश्वम्भर पाण्डेय 'व्यग्र' कर्मचारी कालोनी, गंगापुर सिटी,स.मा. (राज.)322201