हास्य व्यंग्य

चुनावी मेढकों की टर्राहट

अपने देश में जब-जब राज्यों के नगर निकाय चुनाव होते हैं चुनावी मेढको के टर्रटराहट का मौसम एक बार फिर आ जाता है। प्रचार गाड़ियों के द्वारा भांति भांति अनेक भांती के चुनावी टर्रटराहट सुनने को मिल जाती है । मेरे भैया भूल न जाना ..मेरी बहना भुल ना जाना … अरे भूलने का मौका दोगे तब तो लोग भूल पाएंगे रात दिन अपने प्रचार गाड़ी के माध्यम से जनता को याद दिलाते रहते हैं इसलिए भूलने का… सवाल ही नहीं पैदा होता। बल्कि जनता को यह भी याद हो जाता है.फला निशान पर फला दिन तुम मोहर लगाना है।

चुनाव प्रचार गाड़ियों द्वारा कान फोड़ गीतो से जनता का सुखचैन नींद हराम कर दिया जाता है। और तब तक किया जाता रहता है जब तक जनता अपना मत किसी को देखकर जान नहीं छुड़ा लेती। जनता के वोट देने की ताकत ही उसको परेशान करने का साधन बना दिया जाता है। जिस पर ना रोया जा सकता है ना चिल्लाया जा सकता है बस कान में रुई डाल कर बर्दाश्त किया जा सकता है इसके अलावा जनता के सामने कोई चारा भी नहीं रहता। और जिन लोगों को दोपहर में बहुत मीठी मीठी नींद लेने की आदत रहती है वह अपनी आदत कुछ समय के लिए छोड़ना ही बेहतर रहता है क्योंकि यदि आप खुद नहीं छोड़ेंगे तो चुनावी टर्रटराहट अपने शोरगुल से आप की आदत छुड़ा देगी।

ऐसे तो यह वक्त हर पांच साल में आता ही रहता है । और हर बार इसे नयी टर्रटराहट नवीन अद्वितीय बताया जाता है । और अद्भुत तरीके से इसको नवनवीन कलेवर फ्लेवर में जनता के सामने पेश किया जाता है कि इसमें कुछ भी पुराना शेष नहीं है । एकदम नया प्रोडक्ट लाए हैं लेकिन वही टर्रटराहट वही बगावत वही अदावत … मेंढक वही रहते हैं। नए-नए पैदा होने वाले मेंढक अपनी एंट्री के लिए खूब छटपटाते तड़पते हैं । लेकिन उनको प्रवेश नहीं देने के मुद्दे पर सारे पुराने मेंढक एक हो जाते हैं अतः बेचारे नए मेंढक मन मार कर रह जाते हैं ।

पूरे पांच साल धरती के नीचे कुंभकरणी नींद सोए रहकर अन्य सभी जन कार्यों की उपेक्षा करते हैं। लेकिन चुनावी मौसम आते ही यह फुदक फुदक कर धरती फाड़ कर बाहर निकल आते हैं जनता देखकर इनको हक्की बक्की हुई जाती है और जनता के सामने जाने से पहले अपनी पुरानी केचुली उतार देते हैं या उतारने का भरपूर प्रयास करते हैं ।ताकि उनके पास बताने के लिए यह रहे कि हम अब बिल्कुल नए नवेले हैं । जो पिछली बार गाना गाया था। इस बार हमारा हृदय परिवर्तन हो चुका है हम पूर्णत जनधन हो चुके हैं उसी गाने को तोड़ मरोड़ कर फिर से अपना टेप रिकॉर्डर बजा देते हैं।

एक वोट देने का अधिकार जीव का जंजाल बन जाता है एक को दिया तो दूसरा मुंह फुला कर बैठ जाता है दूसरे को दिया तो तीसरा मुंह फुला कर बैठ जाता है । रिश्तेदारी नातेदारी बिगाड़ने में चुनाव भी शकुनी की भूमिका निभाता है कम से कम जनता को पाच – छ वोट देने का अधिकार तो रहना ही चाहिए। ताकि सभी रिश्तेदारी और नातेदारी निभा सके।

— रेखा शाह आरबी

रेखा शाह आरबी

बलिया (यूपी )