सामाजिक

विज्ञापनों के भ्रामक जाल मे भ्रमित बचपन

आजकल का जमाना विज्ञापनों का है, सुई से लेकर हवाई जहाज सब के विज्ञापन दिन भर हमारी आंखों से गुजरते रहते हैं । हम देखना चाहे या ना चाहे विज्ञापन हमारी जिंदगी में अनेक साधनों द्वारा हर तरफ से पैठ बना चुका है। और आजकल का सत्य है जो दिखता है वही बिकता है,भले ही उसकी गुणवत्ता शून्य रहे । लेकिन मनमोहक विज्ञापनों के द्वारा उसका भली प्रकार मार्केटिंग कर लिया जाता है ।

यूं तो विज्ञापन बच्चे , वृद्ध , युवा सबके लिए हैं लेकिन सबसे ज्यादा नजर बच्चों के इस्तेमाल की वस्तुओं पर विज्ञापन बनाने वाले रखते हैं। क्योंकि बच्चों के मन मस्तिष्क को प्रभावित करना अत्यंत आसान है। विज्ञापन बनाने वाले निर्माता जानते हैं बच्चे विज्ञापन देखकर प्रभावित होंगे और वस्तु खरीदने के लिए लालायित हो जाएंगे इसीलिए बच्चों के विज्ञापनों का साम्राज्य बहुत बड़ा है। और विज्ञापनों का भ्रम जाल इतना मजबूत है कि नासमझ बच्चों को पता भी नहीं चलता और वह इसके शिकार बनते चले जाते हैं मां-बाप तर्क देते रह जाते हैं लेकिन बच्चे नहीं सुनते हैं माता-पिता की बच्चों की ज़िद के आगे एक नहीं चलती है।

आजकल के जनरेशन तथा बच्चों को समझाना इतना आसान नहीं रहा । विज्ञापनों तथा टीवी के चलचित्र से प्रभावित रहते हैं यह लुभावने विज्ञापन और यह चलचित्र बच्चों के दिमाग को हैक कर रखे हैं क्या खाना है! क्या पीना है! कैसे बोलना! कैसा व्यवहार करना है! सब कुछ कहीं ना कहीं इन विज्ञापनों तथा चलचित्र द्वारा प्रभावित होता है ,आपको जीवन में क्या बनना है क्या नहीं बनना है, सब कुछ अप्रत्यक्ष रूप से इनके द्वारा ही डिसाइड किया जा रहा है।

कुछ दशक पहले जब विज्ञापन नहीं थे हमारी जिंदगी में या नगण्य रूप से थे, बच्चों का रहन सहन अपने भाई-बहनों परिवार और अपने समाज को देखकर प्रभावित होता था । अतः उनकी जरूरत अत्यंत कम थी और बच्चे नकल करके अपना खानपान ,बोलचाल, पहनावा डिसाइड करते थे। अगर घर के बड़े कुछ खा पी रहे हैं तो बच्चे खुशी-खुशी इन चीजों का सेवन करना सीख लेते थे। जो उनके स्वास्थ्य के लिए हेल्दी होता था । अगर किसी बच्चे को बड़े गलती पर डांट देते थे तो छोटे वाले बच्चे खुद ही समझ जाते थे कि यह गलती हमें नहीं करनी चाहिए। पर आजकल बच्चे ऐड एवं विज्ञापनों को देखकर अपने खाने-पीने के सामानों की डिमांड करते हैं या कार्टून सीरियल देख कर वही हाव-भाव व्यवहार अपनी जिंदगी में उतारते हैं । आजकल बच्चे अपने लिए खुद से डिसाइड कर रहे हैं विज्ञापनों की लुभावनी भ्रामक भाषा के शिकार होकर बच्चे इन विज्ञापनों या चलचित्र के पात्रो के साथ इमोशनल अटैच हो जाते हैं और अपने लिए निर्णय लेते हैं। और यह बात यह कंपनियां बहुत अच्छे तरीके से जानती हैं जिसका अपने अनुसार फायदा उठाती हैं।उन्हे बच्चों के भले बुरे से कुछ भी लेना देना नहीं होता है उन्हें सिर्फ अपनी मार्केटिंग करनी होती है।

पेय पदार्थ कंपनियां विज्ञापनों को बनाने में प्रतिवर्ष बारह सौ करोड़ रूपये खर्च करती है सोच सकते हैं यह बाजार कितना विशाल और बड़ा है। और जो कंपनी इतना पैसा खर्च करेंगी उसका प्रथम मूल व्यवहार होगा आपके द्वारा मुनाफा या अधिकतम धन अर्जन करना । ना कि आपके लिए चिंतित होना कि क्या आपके लिए सही है और क्या गलत है किंतु अपरिपक्व बुद्धि बच्चे विज्ञापनों के भ्रामक सत्य को सत्य मान बैठते हैं और उसी के अनुसार चलते हैं जिस की हानि कभी अपने स्वास्थ्य रूपी धन को चुकाकर करते हैं या अपने व्यवहार के द्वारा करते हैं।

बच्चों का मन कोमल होता है वह बहुत जल्द किसी चीज को सीख जाता है इसलिए हमें कोशिश करनी चाहिए। खाने के लिए बाहरी प्रोडक्ट वही इस्तेमाल करे जो उनके लिए हेल्दी हो। बच्चे वही चैनल या कार्टून देखें जो अच्छे संदेश देने वाले तथा अच्छे संस्कार देने वाले हैं। क्योंकि पूरी तरह इस जमाने में बच्चों को ना मोबाइल से दूर किया जा सकता है ना गैजेट से दूर किया जा सकता है और ना विज्ञापनों से दूर किया जा सकता है । बस बच्चों के ऊपर ध्यान देकर थोड़ा बहुत बचाव किया जा सकता है। जो हर एक माता पिता को करना चाहिए।

— रेखा शाह आरबी

रेखा शाह आरबी

बलिया (यूपी )